जुगाड़बाज ध्वस्त कर रहे GST का सुरक्षा चक्र,लक्ष्य के अनुसार सरकार को नहीं मिल रहा टैक्स

punjabkesari.in Sunday, Sep 24, 2017 - 11:52 AM (IST)

अमृतसर (इन्द्रजीत) : जी.एस.टी. कानून लागू होने के बाद केन्द्र सरकार द्वारा इस बात के दावे किए जा रहे थे कि इस कानून के लागू होने के बाद देश भर के व्यापारियों को पहले से सस्ता सामान मिलेगा जिससे खपतकारों को लाभ होगा। केन्द्र सरकार द्वारा योजनाओं के बीच यह घोषणा जोर-शोर से की जा रही थी कि इस कानून के लागू होने के बाद केन्द्र व राज्य सरकारों का रैवेन्यू बढ़ेगा जिससे देश की अर्थ व्यवस्था मजबूत होगी और विकास कार्य बढ़ेगा जबकि वास्तव में न तो देश के व्यापारियों को इससे लाभ हुआ और न ही खपतकार को सस्ता सामान मिला। 
बड़ी बात है कि केन्द्र व प्रदेश सरकारों का भी रैवेन्यू बढऩे की बजाय घटना शुरू हो गया।

इस संबंध में किए आकलन से पता चला है कि दिल्ली, एन.सी.आर., हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे बड़े व्यापारिक हबों में जुगतबाजों ने अपना ऐसा जाल फैला दिया है कि पूरे का पूरा सिस्टम अघोषित तौर पर हाईजैक हो रहा है। यदि यही स्थिति रही तो आने वाले समय में टैक्स के रूप में रैवेन्यू बढऩे की कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती। हालांकि जी.एस.टी. लागू होने से कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री ने स्पष्ट तौर पर तीन शब्द कहे थे ‘जुगाड़बाजों को नहीं छोड़ेंगे’ किन्तु वास्तविकता है कि व्यापारिक हबों में बड़ी संख्या में बैठे जुगाड़बाजों ने जी.एस.टी. के सुरक्षा चक्र को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। 

ब्रांडेड वस्तुओं पर ही मिलता है रैवेन्यू 
पिछले समय में लोकल मैन्यूफैक्चरर्ज अथवा टे्रडर्ज टैक्स की बचत करने के लिए बिना बिल के काम करते थे किंतु बड़ी और ब्रांडेड कंपनियां अपना माल बिल के अनुसार बेचती थीं। इसमें वैट और सैंट्रल एक्साइज को मिला कर लगभग 30 प्रतिशत टैक्स सरकार को मिलता था। इसमें माल की कीमत टैक्स को मिला कर बाजार में बताई जाती थी। बदलते घटनाक्रम में जब जी.एस.टी. की धाराएं 18 से 30 प्रतिशत तक आईं तो उनकी कीमतें टैक्स के साथ नहीं बढ़ीं क्योंकि पहले ही टैक्स की धाराएं काफी भारी-भरकम थीं।

दूसरी ओर लोकल मैन्यूफैक्चरर्ज अथवा टे्रडर्ज जो कम अथवा बिना बिल से काम करते थे उन्होंने अपने माल के ऊपर अतिरिक्त जी.एस.टी. बढ़ा कर वसूल करना शुरू कर दिया। पहले की स्थिति में जब माल बिल के साथ ही आता था तो कीमत भी टैक्स के अनुसार ही बनती थी जबकि बदलते घटनाक्रम में इस दूसरी श्रेणी के वर्ग ने माल की खरीद तो जी.एस.टी. देकर कर ली जबकि दूसरी ओर आगे बिके माल में टैक्स का इनपुट लेकर पिछले खर्चे को भी मुनाफे में जोड़ दिया। इसमें देखने वाली बात है कि पहले चरण पर दूसरी श्रेणी के लोगों ने जो टैक्स दिया था उसे निर्मित माल के खर्चे में जोड़ा जाता था पर बदलते घटनाक्रम में इन लोगों ने दिया हुआ टैक्स भी आगे वसूल कर लिया, मैन्यूफैक्चिरिंग कॉस्ट कम हुई तो मुनाफा भी कम हुआ।

जुगाड़बाजों की अगली गेम
बड़ी दर के माल की बिलिंग थोड़े से पैसों में खरीद कर जुगतबाजी करने वाले लोग इसका इस प्रकार इस्तेमाल करते हैं जोकि विभाग के अधिकारियों की सोच से ही दूर है। उदाहरण के तौर पर यदि कोई मैन्यूफैक्चर रॉ मैटीरियल 500 रुपए में खरीदता है तो बने हुए माल की कीमत 1500 से 2000 रुपए तक पहुंच जाती है। जी.एस.टी. के नियमों के अनुसार इस 1000 रुपए का अंतर पूरा करने के लिए जरूरी है कि इसके ऊपर की राशि को या तो खर्चे में दिखाया जाए या अन्य मैन्यूफैक्चरिंग कॉस्ट या स्पोर्टिंग मैटीरियल में। देखने वाली बात है कि यदि एक हजार का अंतर पूरा करने के लिए उपरोक्त खर्चे दिखाए जाएं तो उस पर भी सरकार को टैक्स देना पड़ता है किंतु बाहर के खरीदे हुए बिल का इस्तेमाल करते हुए उसे मैटीरियल की कॉस्ट के साथ जोड़ दिया जाता है।

उदाहरण के तौर पर यदि 500 रुपए का रॉ मैटीरियल खरीदा जाता है तो 1000 रुपए का साथ में ब्रांडेड माल का बिल लगा कर उसकी कॉस्ट को 1500 रुपए बना दिया जाता है। इसमें 2 बचत होती हैं एक तो सरकार को मैन्यूफैक्चिरिंग कॉस्ट का टैक्स नहीं देना पड़ता, दूसरे 4 प्रतिशत की दर से खरीदा गया माल 18 से 28 प्रतिशत का मुनाफा दे जाता है और इसका पूरा वजन उन प्रदेशों के व्यापारियों पर पड़ता है जो माल के साथ अतिरिक्त टैक्स की मार खाते हैं। देखने वाली बात है कि इस चक्रव्यूह में सरकार के पल्ले इस डील के बाद कुछ नहीं पड़ता, सरकार को मात्र उन कंपनियों के बेचे माल का टैक्स ही मिलता है जो पहले ही मिलता था।

कैसे चलता है चक्र 
जी.एस.टी. लागू होने के उपरांत जब पक्के बिल पर माल मंगवाने वाले व्यापारी माल को खरीदते हैं तो पहले नियम के अनुसार ही जी.एस.टी. जोड़ कर ही मार्कीट में रेट बताए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि पहले एक्साइज टैक्स मिला कर किसी वस्तु की कीमत 100 रुपए बनती थी तो नए घटनाक्रम में 80+ टैक्स लगा कर 100 बनती है। अब दूसरे प्रांतों के व्यापारी जो इन व्यापारिक हबों से माल लेते हैं उनके लिए पूरे बिल को दर्ज करना किसी बड़े झमेले को दावत देना होता है।

ऐसी स्थिति में व्यापारी पीछे से खरीदे गए माल की बिलिंग वैल्यू 15 से 25 प्रतिशत लेते हैं क्योंकि ब्रांडेड माल की कीमत बहुत अधिक होती है इसलिए थोड़ा बिल ही अधिकारियों की आंखों में धूल झोंकने के लिए काफी होता है। इस स्थिति में बड़े व्यापारी जो माल बेचते हैं, उनके पास स्टॉक तो निल हो जाता है किंतु किताबों में बिलिंग स्टैंड रहती है। इसके लिए व्यापारी के पास 2 विकल्प होते हैं जिसमें या तो वह बिके हुए माल का बिल कैश सेल में काट कर फाड़ दे अथवा बिलिंग किसी ऐसे व्यापारी को बेच दे जिसे बिल की जरूरत होती है।

विभागों के लिए मुश्किल है इस चक्रव्यूह को तोडऩा 
टैक्स लांड्रिग के इस जाल को तोडऩा सरकार के लिए लगभग असंभव है क्योंकि इसे रंगे हाथ पकडऩा संभव नहीं, क्योंकि बिल जेब में ही कैरी हो जाता है। इसके लिए सरकार या तो हरेक बड़े विक्रेता के आगे एक अधिकारी खड़ा करे अथवा ट्रांसपोर्टर ट्रांसपोर्ट पर जाने वाले ट्रकों के माल के एक-एक नग का विश्लेषण करे जो कि असंभव है। इसके लिए सरकार को अलग नीति अपनानी होगी। 


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