मौसम की बेरुखी बढ़ा रही लीची उत्पादकों की चिंता...

punjabkesari.in Monday, Apr 22, 2019 - 10:42 AM (IST)

पठानकोट (शारदा): मौसम की बेरुखी ने इस बार लीची उत्पादकों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। विशेषज्ञों के अनुसार लीची की फसल को उपयुक्त तापमान न मिलने से 50 फीसदी का नुक्सान हो सकता है। प्रदेश में पारम्परिक फसलें गेहूं व धान बड़े पैमाने पर उगाया जाता है। धान के पैडी सीजन में तो रिकार्ड क्यूसिक मात्रा में भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन समूचे प्रदेश में फसल की पैदावार के लिए किया जाता है। इससे हर साल भू-जल स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। इसको लेकर विशेषज्ञ व सरकारें भी ङ्क्षचतित हैं, क्योंकि अगर मौजूदा पैटर्न पर ही भू-जल स्तर का दोहन किया जाता रहा तो जहां जमीनों की उपजाऊ क्षमता घटेगी वहीं आगामी दशकों बाद प्रदेश में फसलों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पाएगा। 

इसी के चलते राज्य सरकार किसानों को पारम्परिक फसलीचक्र से बाहर आकर कृषि से संबंधित व्यावसायिक धंधे अपनाने के लिए प्रेरित कर रहा है्र। हालांकि पारम्परिक फसलों की खेती करने वाले किसान फसलीचक्र सौ फीसदी छोडऩे को तैयार नहीं दिख रहे, क्योंकि इससे खेतों में एक ही साल में दो फसलों गेहूं व धान की पैदावार किसानों को मिल जाती है, जिससे उनके कृषि खर्चे यहां निकल आते हैं, वहीं आय के सीमित ही सही साधन बने रहते हैं। 

वहीं बात अगर कृषि से जुड़े सहायक धंधों की करें तो जिले में गेहूं व धान की फसल के बाद सबसे अधिक बागवानी लीची की फसल की की जाती है परन्तु इस तीसरे महत्वपूर्ण धंधे की ओर बागवानों को उत्साहित करने व इस फसल को आय के मामले सबसे मुनाफे योग्य धंधा बनाने के सरकार व संबंधित विभाग के प्रयास नाकाफी सिद्ध हुए हैं। आंकड़ों के अनुसार जिले में करीब 900 एकड़ रकबे पर हर सीजन में लीची की फसल बागवानों द्वारा लगाई जाती है। जो आगे लीची से बनने वाले पेय पदार्थों को बनाने व विदेशों में निर्यात भी की जाती है। यहां लीची के कच्चे माल से आगे विभिन्न प्रकार के पेय पदार्थ बनाकर कंपनियां व निर्यात करने से जुड़े कारोबारी खूब चांदी कूटते हैं वहीं लीची की फसल उगाने वाले फल उत्पादकों के हिस्से हर बार कोई खासी रकम नहीं आती क्योंकि उन्हें औने-पौने भाव में ही बागों में उगी हुई लीची की फसल मौसम की विषमताओं को झेलते हुए बेचनी पड़ती है, क्योंकि लीची की फसल का समय बेहद सीमित व महज 3 सप्ताहों से डेढ़ महीने तक ही होता है। अधिक गर्मी पडऩे या बारिश होने या तेज आंधी आदि चलने पर बागों में उगी हुई लीची की फसल के एक-दो दिन में ही बर्बाद या खराब होने की आशंका फल उत्पादकों में बनी रहती है। 

लीची जोन बनाने के हुए थे प्रयास
वर्णनीय है कि इस जिले में लीची की फसल के बहुतायत में उगाए जाने के चलते इस क्षेत्र को लीची जोन बनाने के प्रयास हुए थे, क्योंकि इस क्षेत्र में लीची से संबंधित कच्चा माल आसानी से व सस्ते दामों पर उपलब्ध था। लीची जोन बनने पर इलाके में ही इस फसल की स्टोरेज व अन्य सुविधाएं आदि जुटने की संभावना थी परन्तु समय के साथ इस बाबत किए गए प्रयास दम तोड़ते गए, जिससे लीची की फसल को लेकर स्थिति पुराने ढर्रे पर ही रही तथा इस फसल की काश्त करने वाले फल उत्पादकों के ‘अच्छे दिन’ नहीं आ पाए। बतां दें कि जिले की लीची दिल्ली व जयपुर में सीजन के दौरान करीब 7 हजार से 9 हजार क्विंटल तक सप्लाई होती है।

जलवायु विषमताओं से जूझ रहे हैं लीची फल उत्पादक
वहीं हर वर्ष जलवायु में होने वाले व्यापक बदलाव का असर लीची की फसल पर सीधे रूप से देखने को मिल रहा है। मौसम हर बार फल उत्पादकों से आंख-मिचौली खेलता है इससे तारतम्य स्थापित करने में लीची उत्पादक पशोपेश में रहते हैं, क्योंकि कोई फल उत्पादक नहीं जानता कि इस दफा लीची की फसल के मौसम में जलवायु परिस्थितियां व मौसम का मिजाज कैसे रहेगा?   लीची की फसल को पकने व बिकवाली के लिए तैयार होने के लिए गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है परन्तु इस बार सर्दी का मौसम लंबा ङ्क्षखचने व आए दिन हो रही हल्की बारिश व बूंदाबांदी के चलते लीची की फसल बागों में पकने के लिए पर्याप्त तापमान नहीं हो पा रहा है, जबकि लीची का सीजन सिर पर आ गया है। लीची की फसल पकने के लिए 25-40 डिग्री तापमान के बीच की आवश्यकता होती है परन्तु इस बार इन दिनों मौसम कभी 30-32 डिग्री तो कभी इससे भी बारिश के चलते नीचे गिर रहा है। इससे लीची की फसल के समय पर न पकने से फल उत्पादकों को खासी आर्थिक हानि उठानी पड़ सकती है। 

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