हरित क्रांति के साथ ही शुरू हो गया था भूजल संकट, तो क्या अब बूंद-बूंद पानी को तरसेगा पंजाब?

punjabkesari.in Saturday, Jun 22, 2019 - 05:38 PM (IST)

जालंधर। (सूरज ठाकुर) देश की खाद्य सुरक्षा का जिम्मा अपने कंधों पर ढोने वाले पंजाब को 70 के दशक में आई हरित क्रांति का खासा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। सूबे में भूजल संकट हरित क्रांति के दौर में ही शुरू हो गया था, ये अलग बात है कि सरकारें सियासी फायदों के लिए आंखें मूदें रहीं। 70 और 80 के दशक में परंपरागत फसलों की खेती को छोड़कर गेंहू और चावल के फसल चक्र में किसान इस कद्दर फंसा कि अब पांच नदियों वाले पंजाब को पानी की बूंद-बूंद के लिए मोहताज होना पड़ेगा। ऐसा माना जा रहा है कि पानी के संकट की मार झेल रहा पंजाब 2020 तक पंजाब रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। इस मसले पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र अब गंभीर दिख रहे हैं और संकट से निपटने के लिए शासन और प्रशासन ने हाथ-पांव मारने शुरू कर दिए हैं। 

3 फुट नीचे गिरता जा रहा भूजल स्तर
सूबे में किसानों को अच्छी किस्म के एक किलो चावल का उत्पादन करने के लिए 4500 लीटर आवश्कता पड़ती है। अगर बरसाती मौसम में खेती की जाए तो महज 1500 से 2000 लीटर पानी खर्च होता है।  पिछले पांच दशकों से यह खपत अधिकतर ट्यूबवैल के माध्यम से हो रही है। जिसके चलते हर साल भूजल करीब 3 फुट नीचे गिरता जा रहा है। हालात इस कद्दर बिगड़ गए हैं कि केंद्रीय भूजल बोर्ड ने संवेदनशील इलाकों में नए ट्यूबवैल लगाने पर पाबंदी लगा दी है और साथ ही पानी की खपत वाले प्रोजेक्ट्स को अस्वीकृत किया जा रहा है। समय रहते इस समस्या को सरकारों ने भी गंभीरता से नहीं लिया। अब जब कल्पना में पंजाब रेगिस्तान नजर आने लगा है तो सियासतदान कुआं खोदने में लगे हुए हैं।    

भूजल संकट से सरकार के हाथ-पांव फूले
हमारे देश में विडंबना यह है कि जब कोई समस्या विकराल रूप धारण कर लेती है, तो  उसके समाधान के बारे में सोचना शुरू किया जाता है। पंजाब में भी कुछ ऐसे ही हालात है जहां पिछले पांच दशकों से देखते ही देखते जल संकट इस कदर गहरा गया कि अब कैप्टन सरकार के हाथ-पांव फूलने लगे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भूजल स्तर के मामले में राज्य के 141 ब्लॉकों में से 107 ब्लॉक डार्क जोन और करीब एक दर्जन क्रिटिकल डार्क जोन में चले गए हैं। भूजल स्‍तर की गिरावट का सबसे बड़ा कारण धान की खेती है। आंकड़ों के मुताबिक 1980-81 में धान की खेती 18 फीसदी भूमि पर की जा रही थी जो 2012-13 में बढ़कर 36 फीसदी भूमि पर होने लगी। सनद रहे कि धान की खेती में गन्‍ने के मुकाबले 45 प्रतिशत और मक्‍के की अपेक्षा 88 प्रतिशत तक अधिक भूजल की खपत होती है।      

1979 में ही पैदा होने लगा था भूजल संकट
यहां उल्लखनीय यह है कि पंजाब में भूजल स्तर 1970-80 के दौर में ही गिरना शुरू हो गया था। यह हरित क्रांति का वह दौर था जब पंजाब ने अपनी परम्परागत फसलों मकाई, दलहन, तिलहन को अलविदा कहकर गेहूं, चावल का फसल चक्र अपना लिया। चावलों के उत्पादन से किसान को मुनाफा ज्यादा हो रहा था और देश की खाद्य आपूर्ति में पंजाब अहम भूमिका निभा रहा था।  इसी दौरान 1979 में ही पहली बार सूखे का पहला संकट खड़ा हो गया जब मध्य पंजाब के इलाकों में भूजल तेजी से नीचे गिरने लगा। हालांकि 1988 की बाढ़ ने इस संकट से पंजाब को उबार लिया था। यह सूबे के सियासी आकाओं के लिए एक संकेत था कि लोगों को एक दिन पानी के लिए मोहताज होना पड़ेगा। उस वक्त सियासतदानों ने यदि पंजाब के रेगिस्तान होने की कल्पना की होती तो आज भूजल की समस्या विकराल रूप धारण नहीं करती। 

साल में 2 बार धान की खेती भी संकट
पंजाब में भूजल गिरने का सिलसिला तो 70 के दशक में शुरू हो गया था जब किसानों ने मुनाफे के चक्र में परंपरागत फसलों को अलविदा कहकर धान की खेती को मूल रूप से अपना लिया था, लेकिन असली संकट 1993-94 के दौरान पैदा हुआ जब किसानों ने धान की नई किस्म (गोविंदा) उगाने शुरू की। साठ दिन में पक कर तैयार होने वाली इस फसल को स्थानीय भाषा में साठी भी कहा जाता है। इस फसल को किसान एक साल में दो बार (अप्रैल से अक्टूबर) उगाने लगे। इससे किसानों की आर्थिक स्थति तो सुधर गई लेकिन पानी की समस्या विकराल रूप धारण करने लगी।

2005 में सरकार बना किसान आयोग
पंजाब भूजल बोर्ड और पंजाब विश्वविद्यालय ने भूजल के गहराते हुए संकट से राज्य सरकार को अवगत करवाया। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए राज्य सरकार ने 2005 किसान आयोग का गठन किया। 2000 से 2005 के बीच भूजल स्तर 88 सेंटीमीटर सालाना की दर से नीचे गिर रहा था। जबकि 1980 के दशक में भूजल स्तर 18 सेमी सालाना गिर रहा था। राज्य किसान आयोग ने किसानों को जागरुक करने के लिये आयोग ने पानी बचाओ, पंजाब बचाओ अभियान शुरू किया। जिसका किसानों पर खास असर नहीं पड़ा। 

समस्या के चक्कर में कुर्सी बचाने की कवायद
अप्रैल मई महीने की प्रचंड गर्मी में किसान भूजल से धान की खेती कर रहे थे, जिससे भूजल स्तर तेजी से गिरता जा रहा था।  किसान आयोग के अध्यक्ष गुरुचरण सिंह कालकट 2006 में तत्कालीन कैप्टन सरकार के पास एक प्रस्ताव लेकर गए जिसमें कहा गया था कि सरकार अप्रैल के महीने में धान की रोपाई पर रोक लगा दे। कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने इस प्रस्ताव को सियासी चश्मे से देखा और नजर अंदाज कर दिया। उन्हें लगता था कि किसानों की धान की फसल पर रोक लगाने से कांग्रेस के सियासी समीकरण बिगड़ जाएंगे और किसान सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर देंगे।  2007 में हुए चुनाव में कांग्रेस सरकार इसी सोच के साथ सत्ता से बाहर हो गई। 

2009 में धान की रोपाई पर बना कानून 
सत्ता में अकाली-भाजपा सरकार आने के बाद कालकट के प्रस्ताव पर उस वक्त मुख्यमंत्री प्रकाश बादल भी गंभीर नजर नहीं आए, लेकिन 2008 में भूजल स्तर की समस्या को गंभीरता से लेते हुए सरकार ने अप्रैल 2008 में अध्यादेश पारित कर दिया। अध्यादेश के मुताबिक दस मई से पहले धान के बीजों की बुआई पर रोक लगा दी गई और 10 जून से पहले खेतों में धान की रोपाई नहीं की जा सकती थी। 2009 में कानून बनने के बाद उसका सख्ती से पालन किया गया जिसका परिणाम चार साल के भीतर ही दिखने लगा। 2009 में जहां भूजल स्तर सालाना 91 सेंटीमीटर की दर से नीचे गिर रहा था वह सम्भल गया और गिरता स्तर घटकर 55 सेंटीमीटर सालाना रह गया।

अंत में फिर जागी सरकार
जैसा कि आपको बता चुके हैं कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह इस समस्या से 2006 से ही वाकिफ थे, उस वक्त समस्या को नजर अंदाज करना उनकी सियासी मजबूरी रही होगी, लेकिन उनके दोबारा सत्ता में आने के बाद सूबे में भूजल की समस्या विकराल रूप धारण कर गई है। भूजल स्तर करीब तीन फुट सालाना गिर रहा है। कैप्टन कल्पना करते हुए अब अपने भाषणों में कहते हैं कि 2020 तक पंजाब रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। अब सरकार चाहती है कि किसान एक बार फिर से धान की फसल से किनारा कर लें। उन्होंने इस मसले पर अब सर्वदलीय बैठक बुलाई है और राज्य में सभी से सहयोग की अपील की है।    


 

Suraj Thakur