24 मार्च हुई थी तय पर 11 घंटे पहले ही दे दी गई थी भगत सिंह को फांसी

punjabkesari.in Saturday, Mar 23, 2019 - 04:53 PM (IST)

नई दिल्लीः 23 मार्च 1931 यानी की आज के दिन 88 साल पहले भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी।  शहीद-ए-आजम भगत सिंह आजादी के ऐसे नायक रहे, जिनके ऊपर सबसे ज़्यादा फिल्में बनी हैं। आजादी के लिए उनकी लड़ाई और कठोर संघर्ष, शादी के लिए घर से भाग जाने के किस्से लगभग सभी ने सुने होंगे, लेकिन आज हम आपको उनकी ज़िंदगी से जुड़ा वह किस्सा बताएंगे, जब उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई। 

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जेल प्रवास के दौरान भगत सिंह विदेशी और देशी कैदियों के बीच जेल में होने वाले भेद-भाव के खिलाफ भूख हड़ताल की। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी दी जानी थी, लेकिन पूरे देश में प्रदर्शन हो रहे थे और लाहौर में भीड़ जुटने लगी थी। इस कारण भीड़ के किसी तरह के उन्माद से बचने के लिए उन तीनों को तय समय से 11 घंटे पहले 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर फांसी पर लटका दिया गया।जिस वक्त भगत सिंह जेल में थे, उन्होंने कई किताबें पढ़ीं। कहते हैं कि फांसी पर जाने से पहले भी वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने तय समय से पहले फांसी दिए जाने पर कोई सवाल नहीं किया, बल्कि सिर्फ इतना कहा था, 'ठहरिये!

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पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।' फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले, 'ठीक है अब चलो।'उनकी मृत्यु की खबर को लाहौर के दैनिक ट्रिब्यून तथा न्यू यॉर्क के एक पत्र के डेली वर्कर ने छापी। इसके बाद भी कई मार्क्सवादी पत्रों में उन पर लेख छपे, लेकिन भारत में उन दिनों मार्क्सवादी पत्रों के आने पर प्रतिबन्ध लगा था, इसलिये भारतीय बुद्धिजीवियों को इसकी खबर नहीं थी।कहते हैं कि फांसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाए, इसके डर से अंग्रेजों ने पहले तीनों शहीदों के मृत शरीर के टुकड़े किए, फिर उन्हें बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गए, जहां घी के बदले मिट्टी का तेल डालकर ही इनको जलाया जाने लगा। गांव के लोगों ने आग जलती देखी तो वहां जमा होने लगे। उसी दौरान वहां लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर सहित हजारों की संख्या में लोग पहुंच गए।
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इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गए।लोगों ने तीनों शहीदों के अधजले शवों को आग से निकाला और फिर उन्हें लाहौर ले जाया गया, जहां 24 मार्च की शाम हजारों की भीड़ ने पूरे सम्मान के साथ उनकी शव यात्रा निकाली। उनका अंतिम संस्कार रावी नदी के किनारे उस जगह के पास किया गया जहां लाला लाजपत राय का अंतिम संस्कार हुआ था और भगत सिंह हमेशा के लिए अमर हो गए।कहा जाता है कि कोई भी मैजिस्ट्रेट इस फांसी का गवाह नहीं बनना चाहता था। ऑरिजनल डेथ वॉरंट एक्सपायर होने के बाद खुद जज ने वॉरंट पर साइन किए और इन तीनों की फांसी को सुपरवाइज किया। कहते हैं कि भगत सिंह फांसी के फंदे तक मुस्कुराते हुए पहुंचे और ब्रिटिश हुकूमत को ललकारते हुए उनके आखिरी शब्द थे- ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद। इस भारतीय शहीद को जब फांसी दी गई, उस समय उनकी उम्र मात्र 23 साल थी। उनकी शहादत से प्रेरणा लेकर कई और नौजवान आजादी के युद्ध में कूद पड़े।


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