मांसाहारी बढ़ा रहे हैं ग्लोबल वार्मिंग, एक किलो बीफ पकाना 160 किमी गाड़ी चलाने के बराबर

punjabkesari.in Friday, Jun 05, 2020 - 04:35 PM (IST)

2050 तक विश्व में मांसाहारी इंसान शाकाहारी हो जाएं तो एक रिसर्च के मुताबिक खाने की चीजों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 70 फीसदी तक की कमी हो सकती है। पर्यावरणविदों के अनुसार मांसाहार के कारण भी धरती पर ग्लोबल वॉर्मिंग का व्यापक असर पड़ रहा है। फूड कंपनियों ने पूरे विश्व में मीट उत्पादन का जाल बिछा दिया है। मुर्गियों और मछलियों को बड़ा करने के लिए रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है। सस्ता मीट बेचने की कवायद में पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो गया है।

ऐसे समझें

-बीफ को पकाने के लिए बहुत सारी ऊर्जा खर्च होती है। 
-एक बीफ हैमबर्गर को बनाने में वातावरण में 3 किलो कार्बन उत्सर्जन होता है।  
-बीफ खाने वाले दुनिया के पर्यावरण के प्रति सबसे कम दोस्ताना हैं।
-एक भारतीय औसतन 12 ग्राम गोश्त रोज खाता है।
-अमरीका में यह औसत 322 ग्राम है, चीन में यह मात्रा 160 ग्राम है।

क्या कहती है स्टडी :
एक स्वीडन के अध्ययन के अनुसार एक घर में एक किलो गोश्त खाने और पकाने का अर्थ है 160 किलोमीटर तक गाड़ी चलाना। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि जालंधर से चंडीगढ़ तक कार से यात्रा करने से ग्लोबल वॉर्मिंग पर जो असर पड़ेगा वह एक किलो बीफ खाने और पकाने के बराबर होगा। एक अन्य स्टडी के मुताबिक बर्गर में बीफ की जगह मशरूम के इस्तेमाल से ऐसा होगा जैसे 23 करोड़ कारें सड़कों से हटा दी गई हों। यह हैरत में डालने वाला विषय नहीं है। इस तरह की कई रिसर्च कहते हैं कि बीफ पर्यावरण के लिए बेहद नुकसानदेह है। रायटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में मीट खाने वाले करीब दो अरब लोग शाकाहारी बन जाएं तो इससे भारत से दोगुने आकार वाले इलाके को गैसों के उत्सर्जन से बचाया जा सकता है।

Suraj Thakur