पंजाब के 51 फीसदी कारखाने घोल रहे हैं सांसों में जहर

punjabkesari.in Wednesday, Nov 27, 2019 - 12:40 PM (IST)

अमृतसर(इंद्रजीत): राजधानी दिल्ली की सांसें जब वायु प्रदूषण से घुटने लगीं तो पंजाब व हरियाणा के पराली जलाने वाले किसान सारे देश के निशाने पर आ गए। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को किसानों को समझाने की नसीहत दी और कहा कि हर तरह के वायु प्रदूषण को राज्य सरकारें नियंत्रित करें।

पंजाब में कैप्टन सरकार ने भी पराली जला रहे किसानों के खिलाफ  कार्रवाई शुरू कर दी और कई हजार किसानों के चालान काटे गए। यही नहीं प्रशासन व पुलिस भी मुस्तैद हो गई है। पुलिस को अब उन किसानों को पराली और नाड़ जलाने से रोकना होगा जो वायु में 8 फीसदी प्रदूषण फैलाने के हिस्सेदार हैं। विभाग का विजीलैंस महकमा अब किसानों के खिलाफ  भारतीय दंड संहिता आई.पी.सी. और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981 के तहत मामले दर्ज करेगा। वल्र्ड हैल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के मुताबिक पंजाब में 51 प्रतिशत प्रदूषण कारखानों से, 25 प्रतिशत वाहनों से, 11 प्रतिशत घरेलू, 8 प्रतिशत पराली व अन्य ज्वलनशील और 5 प्रतिशत अज्ञात प्रदूषण है।


25 फीसदी पॉल्यूशन वाहनों से 
केंद्र सरकार द्वारा बराबर वाहन कंपनियों पर निगाह रखने के बावजूद जहां वाहनों में यूरो टू, बी.एस. 3, बी.एस. 4 वाहन लाए गए हैं और बी.एस. 6 वाहन की कवायद चल रही है, वहीं वातावरण में कहर बने हुए डीजल और मिट्टी के तेल से चलने वाले ऑटो, गैर-पंजीकृत घड़ुक्के, पुराने वाहन भारी मात्रा में प्रदूषण पैदा कर 25 प्रतिशत कुल प्रदूषण का हिस्सा बने हुए हैं। 

पराली संभाल मशीन पर सरकार दे रही 50 प्रतिशत सबसिडी 
फसल की कटाई के बाद बची नाड़ को जलाने से होने वाला प्रदूषण इस समय प्रदेश की मुख्य समस्या है। यह पैदा होते ही घातक रूप ले जाता है क्योंकि हवा इससे पैदा हुए जहरीले धुएं को जमीन की ओर खींचती है जिससे इसकी लपेट में आने से व्यक्ति दुर्घटना का शिकार हो जाता है अथवा गहरे रंग के काले धुएं से बेहोश हो सकता है। हालांकि सरकार ने किसानों को नाड़ जलाने से रोकने के लिए सबसिडी पर मशीनें दी हैं, जिनकी कीमत करीब डेढ़ लाख रुपए है और इस पर 50 प्रतिशत सबसिडी है, फिर भी किसान इन्हें अपना नहीं रहे।


वातावरण में किरणों का प्रभाव 
वातावरण की स्वच्छता और दूषित करने में किरणों का काफी प्रभाव है। इनमें धरती की दूसरी परत स्टेट्रोस्फेयर्स का काफी अहम रोल है जहां अल्ट्रावायलेट रेज (पराबैंगनी किरणें), रेडियो किरणें, गामा एक्स रेज शामिल हैं। हालांकि पृथ्वी की दूसरी परत स्टेट्रो पर ओजोन लाइन समुद्र तल से 30 कि.मी. ऊंचाई पर है जो पृथ्वी की कक्षा में आने वाली हर किरण के नकारात्मक प्रभाव को काट देती है। इनमें पराबैंगनी किरणें 93 से लेकर 99.5 प्रतिशत तक पृथ्वी के ऊपर ही नष्ट हो जाती हैं जबकि थोड़ी-सी मात्रा में भी ये किरणें चर्म रोगों का कारण बन जाती हैं। ऑस्ट्रेलिया में अल्ट्रावायलेट रेज की अधिकता से कई स्थानों पर चर्म रोग के मरीज हैं। वैश्विक वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि अल्ट्रावायलेट रेज की मात्रा बढ़ जाए तो पृथ्वी की हरियाली, वृक्षों और मनुष्य के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो सकता है। 


बड़े कारखानों में स्क्रबर और पैट कोक 
पंजाब के कारखानों में आम कोयले की जगह पैट कोक जलाया जाता है जो जमीन की खदानों से नहीं निकलता, इसे क्रूड से बनाया जाता है। क‘चा तेल जिसमें पैट्रोल, डीजल, विमानों का तेल, मोबिल ऑयल सहित 2 दर्जन पदार्थ निकल जाते हैं तो बाद में तारकोल आदि पदार्थ रह जाते हैं। बाद में बचा हुआ तारकोल जिसे प्रोसैस करके ठोस रूप दे दिया जाता है, उसे पैट कोक कहते हैं। कच्चा धुआं भारी मात्रा में वातावरण में जहरीले तत्व फैंकता है। इसके कारण ही पंजाब के नगरों में वातावरण का प्रदूषण 51 प्रतिशत है। पैट कोक से निकले धुएं के प्रदूषण को निल करने के लिए सरकार द्वारा कारखानों में स्क्रबर लगवाने के निर्देश दिए गए हैं पर ये सिस्टम लगने के बावजूद काम नहीं कर रहे, इसमें प्रदूषण विभाग की भूमिका संदिग्ध है।

ओजोन में बढ़ रहा होल 
ओजोन परत में बना बड़ा छिद्र (होल) वैश्विक तौर पर वैज्ञानिकों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है जो अटलांटिक क्षेत्र में बढ़ चुका है, जिस कारण विश्व के कई देश प्रभावित हो रहे हैं। इस होल के बढऩे का हालांकि भारत के वायु प्रदूषण पर कोई प्रत्यक्ष असर नहीं है लेकिन खतरनाक किरणों की मार से जीव-जंतुओं, जंगली प्राणियों और पक्षियों के लिए खतरा है जिसकारण भारत में भी कई जीव लुप्त हो चुके हैं। जैसे जंगली क्षेत्रों में हाइना (लकड़बग्घा), मैदानी क्षेत्रों में आसमानी पक्षी चील, गिद्ध, तोते व अन्य खूबसूरत पक्षी और समुद्री जीवों में मछलियों की कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं।


जहरीली गैसों की वातावरण में भूमिका
सामान्य प्रदूषण जिसमें रबड़, लकड़ी और खेतीबाड़ी संबंधी पदार्थों के जलने से पैदा हुए धुएं के प्रदूषण से कहीं अधिक खतरनाक जहरीली गैसों का प्रदूषण है जो पृथ्वी की कक्षा के ट्रोपोस्फेयर से 17 कि.मी. से 7 कि.मी. स्लोपिंग में फैला हुआ है, को बुरी तरह प्रभावित करता है। इनमें के.एफ.सी. (क्लोरो फ्लोरो कार्बन), जीरो 3 की मात्रा मात्र 0.02 प्रतिशत होती है। यह हल्की होती है और पृथ्वी से 30 कि.मी. इसका अस्तित्व स्टेट्रोस्फेयर्स तक होता है। यह कम मात्रा में होने के बावजूद बहुत खतरनाक होती है। इसके साथ हाइड्रॉक्लॉरिक कार्बन, कार्बन ट्रोक्लोराइड और अन्य मानव जनित गैसें होती हैं। इनमें सर्वाधिक खतरनाक क्लोरो फ्लोरो कार्बन-113 का पता वर्ष 1987 में लगा था और यह गैस रैफ्रीजरेशन, घरेलू इंसुलेटर और कीटनाशक से पैदा होती है। इसे रोकने में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने वैश्विक स्तर पर प्रयास किए और कामयाब हुए। इसके बाद दूसरी खतरनाक उक्त गैसें भी सामने आईं जिनका पहले कोई रिकॉर्ड नहीं था, क्योंकि वर्ष 1913 में ओजोन की खोज के बाद 1978 तक इन गैसों का कोई अनुमान नहीं था जो वैज्ञानिकों के लिए मुसीबत बनी हुई हैं। 

स्मॉग का प्रदूषण
यह प्रदूषण सर्दी की शुरूआत में पैदा होता है क्योंकि गर्मी के दिनों में मिट्टी की धूल, कारखानों और भट्ठियों का धुआं वातावरण में फैल जाता है और आकाश की पहली सतह ट्रोपो में पहुंच जाता है। अक्तूबर के अंत और नवम्बर के शुरूआती दिनों में जमीन पर तापमान 25 डिग्री सैल्सियस होता है और प्रकृति के नियम के मुताबिक प्रति 1 किलोमीटर ऊंचाई पर 6 प्वाइंट 9 डिग्री सैल्सियस तापमान कम हो जाता है। इन हालातों में जहरीला धुआं और धूल यदि 4 किलोमीटर ऊपर चली जाए तो यह शून्य तापमान में पहुंच जाती है, जहां जमकर यह स्मॉग का रूप ले जाती है और यह परत इतनी सख्त होती है कि सूर्य की किरणें भी इसे भेद नहीं पातीं। इससे दम घुटने लगता है, सांस की तकलीफ होने लगती है। स्मॉग को रोकने के 2 ही विकल्प हैं। या तो इसे हैलीकॉप्टर द्वारा कृत्रिम वर्षा कर तोड़ा जाए या बारिश का इंतजार किया जाए। 

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