अनुच्छेद 370: शेख अब्दुल्ला की तानाशाही नहीं रोक पाई लाला जी की कलम को

punjabkesari.in Friday, Aug 09, 2019 - 05:12 PM (IST)

जालंधर(सोमनाथ): मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म किए जाने का अधिकांश राजनीतिक पार्टियां खुलकर समर्थन कर रही हैं। कांग्रेस समेत कुछ अन्य राजनीतिक पार्टियां अपने राजनीतिक हितों के लिए मोदी सरकार के खिलाफ झंडा बुलंद किए हुए हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा और राज्यसभा में इन विधेयकों पर बयान देते हुए कहा कि अनुच्छेद-370 की आड़ में 2-3 परिवार ही अपना दबदबा बनाए हुए थे और ये परिवार चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर पर केवल उनकी संतानें ही राज करें। शेख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री रहते हुए एक तानाशाह के रूप में काम करते रहे। कांग्रेस का उनको समर्थन था। अपनी और अपनी सरकार की आलोचना उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। हिंद समाचार ग्रुप के संस्थापक लाला जगत नारायण अपनी लेखनी में जहां शेख अब्दुल्ला की तानाशाही नीतियों की समय-समय पर आलोचना करते रहे, वहीं अनुच्छेद-370 को खत्म करने के लिए लेख भी लिखे और राज्यसभा सदस्य होते हुए सदन में भी इसे उठाया।

शेख अब्दुल्ला लाला जी की लेखनी से इतने भयभीत थे कि उन्होंने स्वतंत्रता पूर्व के कस्टम एक्ट के तहत 1977 में ‘हिंद समाचार’ और ‘पंजाब केसरी’ के अपने प्रदेश में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी ताकि प्रदेश की आम जनता लाला जी के लिखे आलेखों को पढ़ न सके। लाला जी ने शेख अब्दुल्ला की तानाशाही के खिलाफ प्रैस की आजादी के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर शेख अब्दुल्ला को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। यानी लाला जी की लेखनी की जीत हुई और जम्मू-कश्मीर के लोगों को ‘ङ्क्षहद समाचार’ और ‘पंजाब केसरी’ अखबार पढऩे को मिलने लगे। इसके बाद भी लाला जी ने कभी अपनी लेखनी से समझौता नहीं किया और शेख अब्दुल्ला की तानाशाही नीतियों के खिलाफ जमकर लिखा। यही नहीं जब देश के राष्ट्रपति नीलम संजीवा रैड्डी ने शेख अब्दुल्ला की प्रशंसा के पुल बांधे तो लाला जी ने अपनी लेखनी से जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति से अवगत करवाया।     

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जमाने की नैरंगियां-शेख की नई करवट, आलेख-2 फरवरी 1977
लाला जी ने अपने इस आलेख में लिखा है-शेख अब्दुल्ला गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर हैं। जब जम्मू-कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का राज था तो शेख साहिब ने एक मुस्लिम मजलिस खड़ी की थी और एक साम्प्रदायिक नेता के रूप में अपना राजनीतिक जीवन आरम्भ किया था तथा जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों के अंदर साम्प्रदायिकता की भावनाएं बुरी तरह उभारी थीं। इस अवसर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे भी हुए थे। जब महाराजा हरि सिंह ने उनके इस आंदोलन को फेल करके दिखा दिया तो फिर उन्होंने रंग बदला और जम्मू-कश्मीर में प्रजा मंडल की तरह नैशनल कॉन्फ्रैंस की बुनियाद रखी और स्व. पं. नेहरू को इस बात का विश्वास दिलाया कि महाराजा हरि सिंह साम्प्रदायिक हैं और हम जम्मू-कश्मीर में धर्मनिरपेक्षता का प्रचार करके महाराजा के शासन से मुक्ति पाना चाहते हैं। पं. नेहरू उनकी बातों में आ गए और उन्हें अपना समर्थन दे दिया। हालांकि सरदार पटेल और अन्य नेता इसके विरुद्ध थे। एक अन्य जगह लाला जी ने लिखा है, ‘‘एक जमाना था कि शेख अब्दुल्ला श्रीमती इंदिरा गांधी की बेहद तारीफ किया करते थे और कहा करते थे कि यदि भारत में लोकतंत्र बचा है तो वह केवल श्रीमती इंदिरा गांधी की बदौलत ही बचा है। यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में जीत जाती तो उन्होंने कांग्रेस के ही गुण गाकर मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने का पूरा प्रयत्न करना था परंतु आज परिस्थितियां बदल गई हैं। जनता पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ हो गई है इसलिए अब शेख अब्दुल्ला ने कांग्रेस का राग अलापना बंद करके जनता पार्टी की डफली बजाना शुरू कर दिया है।’’

राष्ट्रपति जी! भेस बदल कर स्थिति का अवलोकन करें
लाला जी अपने इस आलेख में लिखते हैं-कुछ समाचार पत्रों में भारत के राष्ट्रपति श्री नीलम संजीवा रैड्डी ने एक बयान में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला की प्रशंसा में धरती और आकाश को एक करके रख दिया है। राष्ट्रपति ने नई दिल्ली के पोस्ट मिनी ऑडीटोरियम में जम्मू-कश्मीर के सांस्कृतिक दल द्वारा प्रस्तुत एक सांस्कृतिक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए कहा कि शेख अब्दुल्ला के इस संदेश, कि यदि देश समृद्ध है तो हम समृद्ध हैं को देश के कोने-कोने में पहुंचाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि शेख साहिब के मार्गदर्शन में जम्मू-कश्मीर के लोग शानदार सांस्कृतिक सम्पदा और साम्प्रदायिक एकता को बल देने के काम में जुटे हैं। अपने भाषण में एक जगह राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीर के ही नहीं बल्कि सारे भारत के शेर हैं और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है। लाला जी लिखते हैं-मैंने जब राष्ट्रपति महोदय का यह बयान पढ़ा तो मुझे बेहद दुख हुआ क्योंकि एक ओर जम्मू-कश्मीर की सीमा पर स्थित पुंछ का वह क्षेत्र, जो हर समय पाकिस्तानी गोलियों और गोलों की लपेट में रहता है, बुरी तरह आग से जल रहा है और दूसरी ओर राष्ट्रपति महोदय शेख अब्दुल्ला को यह कहने की बजाय कि वह इस आग को बुझाएं उनकी निराधार प्रशंसाओं के पुल बांध रहे हैं।

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कांग्रेस को नहीं नैशनल कॉन्फ्रैंस को समाप्त किया जाए
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने एक अंग्रेजी पाक्षिक ‘नई दिल्ली’ को दी गई एक इंट्रव्यू में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में इंदिरा कांग्रेस को समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि इंदिरा कांग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रैंस एक ही विचारधारा की 2 पाॢटयां हैं और एक ही प्रदेश में एक ही विचारधारा की 2 पाॢटयों का होना कोई अर्थ नहीं रखता। उन्होंने यह भी कहा कि नैशनल कॉन्फ्रैंस के लिए प्रदेश के लोगों में एक भावनात्मक लगाव है। जब उनसे यह पूछा गया कि क्या आप नैशनल कॉन्फ्रैंस में ही प्रदेश की इंदिरा कांग्रेस को मिलाने की बात से सहमत हैं, तो उन्होंने कहा कि हम केवल उन्हीं इंदिरा कांग्रेसियों को नैशनल कॉन्फ्रैंस में शामिल करेंगे जिन्हें जनता का सम्मान और विश्वास प्राप्त हो। आलेख में एक जगह लाला जी लिखते हैं-मैंने जब इंदिरा कांग्रेस के नेताओं का बयान पढ़ा तो मुझे बहुत हैरानी हुई। मुझे लगा कि अब इंदिरा कांग्रेस के नेता अपनी गलती को महसूस करने लगे हैं। अगर श्रीमती गांधी सैयद मीर कासिम को कश्मीर विधानसभा में कांग्रेस का पूर्ण बहुमत और नैशनल कॉन्फ्रैंस का एक भी सदस्य न होने के बावजूद हटाकर शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का सर्वेसर्वा न बनातीं तो आज यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। मेरी राय में शेख साहिब की जिंदगी का एक ही मिशन है कि जैसे भी हो वह जम्मू-कश्मीर के सुल्तान बन जाएं और उनके बाद जम्मू-कश्मीर में उनके ही वंश के लोग वहां का शासन चलाते रहें।

अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध साप्ताहिक ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ के 12 नवम्बर के अंक में जम्मू-कश्मीर के प्रमुख नेता श्री शमीम अहमद शमीम का एक लेख ‘शेख अब्दुल्ला-दैन एंड नाओ’ (शेख अब्दुल्ला दैन एंड नाओ) के शीर्षक से छपा है। इस लेख में शेख अब्दुल्ला के आवरण का उल्लेख करते हुए श्री शमीम लिखते हैं- ‘‘विगत 22 वर्षों के दौरान शेख का आचरण, उनके अनेक बयान और भाषण तथा इंटरव्यू आदि यह सिद्ध करते हैं कि यद्यपि उनकी गिरफ्तारी दुर्भाग्यपूर्ण थी, परंतु इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था तथा इसे टाला नहीं जा सकता था। पार्टी और सरकार में उनके साथियों का उन पर से विश्वास उठ जाना, केंद्रीय सरकार और उसके नेताओं के प्रति उनका शत्रुतापूर्ण रवैया, उनके अत्यंत अनुचित और उत्तेजनापूर्ण भाषण इन सबकी तब तक उपेक्षा की जाती रही जब तक कि यह पता नहीं चल गया कि ये सब बातें ‘एक बड़े गलत इरादे’ का हिस्सा हैं। वह केंद्र सरकार के साथ युद्ध के मार्ग पर चल रहे थे, अपने हर वायदे को तोड़ रहे थे और केंद्र के साथ हुए हर समझौते को चुनौती दे रहे थे। अपनी पहली रिहाई के बाद 7 फरवरी, 1958 को जामिया मस्जिद श्रीनगर में जनमत संग्रह कराने की मांग करते हुए उन्होंने कहा था कि जब 9 अगस्त 1953 को मुझे गिरफ्तार किया गया था तो मुझ पर अमरीकियों के साथ षड्यंत्र करने का आरोप लगाया गया था। अब बख्शी गुलाम मोहम्मद कहते हैं कि मुझे इसलिए गिरफ्तार किया गया था क्योंकि मैंने कश्मीर के भारत में विलय को चुनौती दी थी, उसके अंतिम होने पर आपत्ति की थी और जनमत संग्रह कराए जाने की मांग की थी। मैं कहता हूं कि यदि षड्यंत्र करने की बजाय मुझ पर यह ‘पाप’ करने के आरोप लगाए गए होते तो मैं पहले ही स्वयं को दोषी मान कर इन आरोपों को स्वीकार कर लेता। विलय को चुनौती देने और जनमत संग्रह की मांग करने के आधार पर शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी और बर्खास्तगी वैधानिक थी या नहीं और लोकतांत्रिक दृष्टि से उचित थी या नहीं, यह एक बहस का विषय है, परंतु ऐसा किया जाना अनिवार्य था, यह बात स्वयं शेख अब्दुल्ला ने सिद्ध कर दी है।

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केवल रियासत के विलय को स्वीकार कर लेने और जनमत संग्रह की मांग छोड़ देने पर ही श्रीमती इंदिरा गांधी ने फरवरी 1975 में रियासत की वह गद्दी तश्तरी में रखकर शेख साहब को पेश कर दी जो 1953 में उनसे छीन ली गई थी। जमीयत के एक एम.एल.ए. को शेख साहब की ओर से यह झाड़ पिलाया जाना कि भारत में कश्मीर का विलय स्वीकार न करने के लिए उसको परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए, यह सिद्ध करता है कि शेख साहब को सबक मिल गया है। इससे उनके उन तमाम पुराने साथियों अर्थात बख्शी साहब, सादिक साहब, कासिम साहब और डी.पी. धर का सम्मान बढ़ा है जिनको 1953 में शेख साहब ने ‘गद्दार’ की संज्ञा दी थी। मिर्जा अफजल बेग के पतन और उन पर षड्यंत्र करने के आरोप लगाए जाने के बाद शेख साहब ने अपने पिछले साथियों पर अपने विरुद्ध षड्यंत्र करने का आरोप लगाया है। षड्यंत्र की यह विचित्र धारणा किसी भी तानाशाह में बढ़ती हुई असुरक्षा की भावना की द्योतक है और शेख अब्दुल्ला इससे सदा पीड़ित रहे हैं। रियासत के भविष्य के बारे में शेख के विचार 1950 से ही भिन्न रहे हैं और इसका प्रमाण एक अत्यंत अप्रत्याशित सूत्र से मिला है। भारत में तत्कालीन अमरीकी राजदूत हैंडरसन के कुछ पत्र हाल ही में छपे हैं। इनमें से कुछ में शेख अब्दुल्ला से उनकी बातचीत का भी हवाला है।

29 सितम्बर 1950 के अपने पत्र में हैंडरसन लिखते हैं, ‘‘जब मैं कश्मीर में था तो कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला से उनके अनुरोध पर मेरी दो बार गुप्त वार्ता हुई। इस बातचीत में पूरी तरह खुलकर उन्होंने मुझे कश्मीर के भविष्य के बारे में अपने विचार और अपनी कुछ समस्याएं बताईं। उन्होंने पूरा जोर देकर इस बात को गलत बताया कि वह प्रो-कम्युनिस्ट, प्रो-सोवियत, पश्चिम विरोधी या अमरीका विरोधी हैं।’’ आगे चलकर हैंडरसन लिखते हैं कि कश्मीर के भविष्य पर बातचीत करते हुए शेख अब्दुल्ला ने रह-रहकर यह बात कही कि उनके विचार में कश्मीर स्वतंत्र होना चाहिए, रियासत की भारी बहुसंख्या यह स्वतंत्रता चाहती है और उन्हें विश्वास है कि ‘आजाद कश्मीर’ के नेता भी इस विचार से सहमत होंगे और इस मामले में हमें सहयोग देंगे। उनका कहना था कि कश्मीर के लोग यह बात समझ नहीं पा रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ कश्मीर समस्या के एक संभावित समाधान के रूप में स्वतंत्रता की उपेक्षा क्यों कर रहा है। उसने फिलस्तीन की स्वतंत्रता के लिए विशेष बैठक बुलाई थी हालांकि वह क्षेत्र और जनसंख्या दोनों ही की दृष्टि से कश्मीर से छोटा है। कश्मीर के लोगों की अपनी भाषा और संस्कृति है। कश्मीर के ङ्क्षहदू भारत के ङ्क्षहदुओं से और कश्मीर के मुसलमान पाकिस्तान के मुसलमानों से सर्वथा भिन्न हैं।जब मैंने उनसे यह पूछा कि क्या कश्मीर भारत और पाकिस्तान के मैत्रीपूर्ण सहयोग के बगैर एक स्वतंत्र देश के रूप में स्थिर रह सकेगा तो शेख अब्दुल्ला ने नकारात्मक उत्तर दिया। उनकी राय में स्वतंत्र कश्मीर उसी हालत में जीवित रह सकता है जब भारत और पाकिस्तान दोनों से ही उसकी मैत्री हो, भारत और पाकिस्तान की भी आपस में मैत्री हो और संयुक्त राष्ट्र संघ विकास के लिए उसे समुचित आॢथक सहायता दे।

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भारत के साथ कश्मीर के लोगों की सम्बद्धता निकट भविष्य में कश्मीर के लोगों के दुख दूर नहीं कर पाएगी। भारत में बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जहां आॢथक विकास किए जाने की आवश्यकता है इसलिए उन्हें विश्वास है कि कश्मीर के विकास पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जाएगा। अलबत्ता कश्मीर के लिए पाकिस्तान की बजाय भारत के साथ रहना अधिक अच्छा है। कश्मीरियों के लिए एक पुराने कुरानवादी दृष्टिकोण के शासन तले चले जाना विनाशकारी होगा। श्री शमीम अहमद शमीम के इस लेख पर मैं अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, केवल इतना ही लिखना चाहता हूं कि यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण मामला है और देश की जनता इस पर शेख साहब से स्पष्टीकरण चाहती है।आशा की जानी चाहिए कि शेख साहब अविलम्ब अपना स्पष्टीकरण देंगे ताकि जो संदेह और शंकाएं श्री शमीम के इस रहस्योद्घाटन से लोगों के मन में उत्पन्न हो गई हैं वे दूर हो सकें।
    


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Vaneet

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