‘पर्यावरण और मनुष्य’ परस्पर पूरक है

punjabkesari.in Monday, Aug 31, 2020 - 03:29 PM (IST)

स्प्रिचुअल सर्विस फाऊंडेशन द्वारा 30 अगस्त को संपन्न पर्यावरण दिवस के विशिष्ट कार्यक्रम में हम सब लोग सहभागी थे। पर्यावरण, यह शब्द आजकल बहुत सुनने को मिलता है और बोला भी जाता है और उसका एक दिन मनाने का भी यह तो कार्यक्रम है, वह भी अर्वाचीन है। उसका कारण है कि अभी तक दुनिया में जो जीवन जीने का तरीका था या है अभी भी, बहुत मात्रा में है, प्रचलित है। वो तरीका पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। वो तरीका प्रकृति को जीतकर मनुष्यों को जीना है, ऐसा मानता है। वह तरीका प्रकृति मनुष्य के उपभोग के लिए है। प्रकृति का कोई दायित्व मनुष्य पर नहीं है, मनुष्य का पूरा अधिकार प्रकृति पर है, ऐसा मानकर जीवन को चलाने वाला वो तरीका है। और ऐसा हम गत 200-250 साल से जी रहे हैं। उसके दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं, उसकी भयावहता अब दिख रही है। ऐसे ही चला तो इस सृष्टि में जीवन जीने के लिए हम लोग नहीं रहेंगे। अथवा ये भी हो सकता है कि यह सृष्टि ही नहीं रहेगी और इसलिए मनुष्य अब विचार करने लगा, तो उसको लगा कि पर्यावरण का संरक्षण होना चाहिए इसलिए पर्यावरण दिवस मना रहे हैं। 

लेकिन भारत का हमारा तरीका एकदम भिन्न है। अस्तित्व के सत्य को हमारे पूर्वजों ने उसकी पूर्णता में समझ लिया और तब से उन्होंने ये समझा, कि हम भी पूरे प्रकृति के एक अंग हैं। शरीर में जैसे शरीर के सब अंग काम करते हैं, तब शरीर चलता है और जब तक शरीर चलता है, तब तक ही शरीर का कोई अंग चल पाता है। शरीर में प्राण नहीं रहा तो हृदय बंद होता है, थोड़ी देर में दिमाग भी काम करना बंद कर देता है, सबसे आखिर  में अंतडिय़ों के स्नायु बंद हो जाते हैं, सभी अवयव काम करना छोड़ देते हैं, मर जाते हैं। शरीर अंगों के कार्य पर निर्भर है, अंग शरीर से मिलने वाली प्राणिक ऊर्जा पर निर्भर है। यह परस्पर संबंध सृष्टि का हमसे है, हम उसके अंग हैं, सृष्टि का पोषण हमारा कत्र्तव्य है। अपनी प्राण धारणा के लिए हम सृष्टि से कुछ लेते हैं, शोषण नहीं करते, सृष्टि का दोहन करते हैं। अपने जीवन के तरीके में क्या करना, क्या रहना, सारा अनुस्यूत है। हमारे यहां रोज चींटियों को आटा डाला जाता था, हमारे यहां घर में गाय को गौग्रास, कुत्ते को श्वान बलि, पक्षियों को काकबलि, कृमि-कीटों के लिए बलि और गांव में कोई अतिथि भूखा है तो उसके लिए, ऐसे पांच बलि चढ़ाने के बाद गृहस्थ भोजन करता था। ये बलि यानि प्राणी हिंसा नहीं थी, ये बलि यानी अपने घर में पका हुआ अन्न इन सबको देना पड़ता है। इन सबका पोषण करना मनुष्य की जिम्मेदारी है क्योंकि इन सबसे पोषण मनुष्य को मिलता है।

इस बात को समझकर हम जीते थे। इसलिए हमारे यहां नदियों की भी पूजा होती है, पेड़-पौधों, तुलसी की पूजा होती है। हमारे यहां पर्वतों की पूजा-प्रदक्षिणा  होती है, हमारे यहां गाय की भी पूजा होती है, सांप की भी पूजा होती है। भगवत गीता में कहा है, परस्परं भावयंतम, देवों को अच्छा व्यवहार दो, देव भी आपको अच्छा व्यवहार देंगे। परस्पर अच्छे व्यवहार के कारण सृष्टि चलती है, इस प्रकार का अपना जीवन था। लेकिन इस भटके हुए तरीके के प्रभाव में आकर हम उसको भूल गए। इसलिए, आज हमको भी पर्यावरण दिन के रूप में इसको मनाकर स्मरण करना पड़ रहा है। वो करना चाहिए, अच्छी बात है। हमारे यहां नागपंचमी है, हमारे यहां गोवर्धन पूजा है। हमारे यहां तुलसी विवाह है, इन सारे दिनों को मनाते हुए आज के संदर्भ में उचित ढंग से मनाते हुए, हम सब लोगों को इस संस्कार को अपने पूरे जीवन में पुनर्जीवित और पुनर्संचरित करना है। जिससे नई पीढ़ी भी उसको सीखेगी, उस भाव को सीखेगी। हम भी इस प्रकृति के घटक हैं। हमको प्रकृति से पोषण पाना है, प्रकृति को जीतना नहीं। हमको स्वयं प्रकृति से पोषण पाकर प्रकृति को जिलाते रहना है। इस प्रकार का विचार करके आगे पीढ़ी चलेगी, तब यह, विशेष कर पिछले 300-350 वर्षों में जो खराबी हुई है, उसको आने वाले 100-200 वर्षों में हम पाट जाएंगे। सृष्टि सुरक्षित होगी, मानव जाति सुरक्षित होगी, जीवन सुंदर होगा। इस दिन को मनाते समय, यह केवल हम कोई मनोरंजन का कार्यक्रम कर रहे हैं, ऐसा भाव न रखते हुए, संपूर्ण सृष्टि के पोषण के लिए, अपने जीवन को सुंदरतापूर्ण बनाने के लिए, सबकी उन्नति के लिए हम ये कार्य कर रहे हैं, ऐसा भाव हमको मन में रखना चाहिए  और आंखें खोलकर इस एक दिन का संदेश साल भर पूरे जीवन में छोटी-छोटी बातों का विचार करते हुए, हमें अपने आचरण में उतारना चाहिए, ऐसा मुझे लगता है। इस ङ्क्षचतन को विचार के लिए आपके सामने रखता हूं। इस दिवस की आपको शुभकामनाएं देता हूं चिंता और अपना कथन समाप्त करता हूं।


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Vatika

Recommended News