पंचायत चुनाव में ही साफ हो गया था कि कश्मीर में लोग आतंक नहीं विकास चाहते हैं

punjabkesari.in Friday, Aug 09, 2019 - 04:36 PM (IST)

जालंधर (सूरज ठाकुर): मोदी सरकार ने 2014 में पहली बार सत्ता में आने के बाद जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को खत्म करने के विकल्प तलाशने शुरू कर दिए थे लेकिन सियासी समीकरण कुछ इस तरह के हो गए कि कश्मीर में भाजपा को गठबंधन में सरकार भी चलानी पड़ी। 2019 के चुनाव में राष्ट्रवाद चूंकि भाजपा का नारा था इसलिए सत्ता में आते ही सर्वप्रथम मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 को जड़ से उखाड़ फैंकने की नीति पर काम किया। अनुच्छेद-370 का अचानक हटाया जाना कोई चमत्कार नहीं था। गृह मंत्रालय संभालने के बाद अमित शाह का पूरा फोकस जम्मू-कश्मीर पर ही था। राज्यपाल शासन में जून माह में ‘बैक टू विलेज’ अभियान सफल होने के बाद स्थानीय लोगों ने साफ कर दिया था कि वे विकास चाहते हैं, आतंक नहीं। इससे पहले 7 साल बाद हुए पंचायत चुनावों में 74 फीसदी से अधिक मतदान हुआ था। वह भी तब जब क्षेत्रीय दलों, हुर्रियत द्वारा बहिष्कार और आतंकवादी संगठनों द्वारा लोगों को जान से मारने की धमकी दी गई थी। ‘बैक टू विलेज’ अभियान में कुख्यात आतंकी जाकिर मूसा का पिता भी शामिल हुआ था।


राज्य में पंचायत चुनावों से भी खुला रास्ता
राजनीतिक संकट के चलते 20 जून, 2018 में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था। जम्मू-कश्मीर में पंचायत चुनाव 2011 में हुए थे और 5 वर्ष का कार्यकाल 2016 को समाप्त हो गया था। उसके बाद से कश्मीर में खराब हालात के कारण चुनाव टलते रहे। राज्यपाल सत्यपाल मलिक चाहते थे कि रा’य में पंचायत चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया अनुसार बिना बाधा के सम्पन्न हों। रा’यपाल की इ‘छा के मुताबिक अक्तूबर, 2018 से दिसम्बर माह तक ये चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ सम्पन्न हो गए। दूसरी बार सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार का जम्मू-कश्मीर के लिए यह एक प्लस प्वाइंट था। सिर्फ जरूरत थी तो पंचायत प्रतिनिधियों को विश्वास में लेने की।


क्या था ‘बैक टू विलेज’
इसी साल 30 मई को मोदी सरकार अस्तित्व में आ चुकी थी। गृह मंत्रालय अमित शाह के हाथों में सौंप दिया गया था। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के अधीन गतिविधियां जारी थीं। इसी दौरान 20 जून, 2019 को रा’यपाल सत्यपाल मलिक के अधीन प्रशासन ने राज्य में ‘बैक टू विलेज’ अभियान शुरू किया जो 27 जून, 2019 तक चला। इस अभियान के तहत राजपत्रित अधिकारियों ने रा’य की सभी 4483 पंचायतों में 2 दिन और एक रात बिताई थी। अधिकारियों को प्रशासन की हिदायत थी कि इस दौरान वे अन्य जमीनी स्तर के संवाद करने के अलावा ग्राम और महिला सभाएं आयोजित करेंगे। इस योजना का मूल उद्देश्य सरकारी तंत्र को उसकी कुर्सी से उठाकर गांवों में बसे लोगों के घरों के दरवाजों तक ले जाना था। इस आयोजन को शांति की पहल और चरमपंथियों को रा’य से बाहर करने के प्रयास के तौर पर देखा गया था।


अमित शाह की भूमिका
बतौर गृह मंत्री अमित शाह ने 26 जून, 2019 को कश्मीर का पहला दौरा किया था और रा’य के हालात का जायजा लिया था। उन्होंने राज्यपाल सत्यपाल मलिक और सेना के शीर्ष कमांडरों से मुलाकात करके हालात की जानकारी ली थी। इस दौरान जम्मू-कश्मीर में बंद की अटकलें लगाई जा रही थीं, लेकिन किसी भी अलगाववादी संगठन की बंद का ऐलान करने की हिम्मत नहीं हुई। उस वक्त उनके इस दौरे को एक रणनीति के तहत जोड़ कर देखा गया था। ऐसा माना जा रहा था कि रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए विकास परियोजनाओं को मजबूत करना और घोटालों में शामिल स्थानीय राजनीतिज्ञों को बेनकाब कर उन्हें उखाड़ फैंकना ही अमित शाह का मकसद था। अंतत: हुआ भी ऐसे ही, जम्मू-कश्मीर के सियासतदानों के घोटाले उजागर होने लगे और वह अपने मकसद में कामयाब भी हुए।


3 साल में मारे जा चुके हैं करीब 700 आतंकी
7 साल बाद हुए पंचायत चुनावों से यह साफ हो गया था कि लोग चरमपंथ और आतंकियों के साथ नहीं हैं। वे विकास की मुख्य धारा से जुडऩा चाहते हैं। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक भारत प्रशासित कश्मीर में बीते 3 साल में 700 चरमपंथी मारे गए हैं। इसके अलावा एनकाऊंटर की जगहों पर सुरक्षा बलों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले 150 से ज्यादा आम लोगों की मौत हुई है। ऐसे में अमित शाह ने लोगों के रुख को भांपते हुए मोदी सरकार को फीडबैक दिया था। कुल मिलाकर यह कहना गलत होगा कि सरकार का धारा 370 को खत्म करने का निर्णय अचानक लिया गया। निर्णय से पहले इस पर कई माह से ग्राऊंड वर्क  किया जा रहा था और पंचायत चुनाव भी इस ग्राऊंड वर्क का हिस्सा था।

Suraj Thakur