किसानों के संघर्ष को देख केंद्र ने बनाया तनाव रहित माहौल, 4 को राहत मिलने की आसार!

punjabkesari.in Saturday, Jan 02, 2021 - 11:50 AM (IST)

अमृतसर(दीपक शर्मा): ‘देर से आए तो दुरुस्त आए’ भाजपा की सोच में किसानों के आंदोलन के प्रति कुछ नर्म बदलाव आना इस बात का संकेत है कि किसानों के आंदोलन का प्रभाव 50 किसानों की मौत की कुर्बानियां, केंद्र व राज्य सरकारों पर 35 दिनों तक आर्थिक मुनाफे का जो जनाजा निकला है। उससे केंद्र सरकार में बदलाव आना लाजमी तो था, परंतु असल मुद्दा न्यूत्तम समर्थन मूल्यों को कानून के तहत लाना, काले कानून को सफेद करके किसानों को यदि 4 जनवरी की बैठक राहत देती है तो इसके लिए दोनों पक्षों को बराबर होकर झुककर राष्ट्र हित में फैसला करना दोनों पक्षों के लिए अब वरदान साबित हो सकता है। परिणाम स्वरूप दोनों पक्षों को एक सांझे समझौते के तहत कुछ नुक्सान सहन करने के लिए अपनी-अपनी जिद्द को ठंडा तो करना होगा। अगर मोदी ने तीन काले कानूनों को सफेद न किया तो किसानों का आंदोलन विराट रूप ले सकता है।

30 दिसम्बर को केंद्र सरकार और 40 किसान नेताओं के बीच होने वाली बैठक में पराली और बिजली संशोधन प्रस्तावों को कानून न बनाने का जो फैसला हुआ है। उससे दोनों पक्षों ने कुछ राहत की सांस तो ली है, परंतु केंद्रीय नेताओं को 4 जनवरी को होने वाली दो पक्षीय मीटिंग से पहले यह तय करना होगा कि कॉरपोरेट घराने के साथ किए गए वायदे और कर्जे की वापसी का तरीका कुछ नरम करके उसमे कोई भी उचित फैसला लेने से पहले बदलाव करने की रणनीति तो तैयार करनी होगी, परंतु यदि ऐसा न हुआ तो नादरशाही फरमान का परिणाम 30 दिसम्बर को हुए दोनों फैसलों पर पानी फिरना लाजमी है, जबकि हालात के मुताबिक कोई ठोस समझौता होने की सम्भावनाएं कम नजर आती है। कोई भी पार्टी सत्ता पर हो उस पार्टी का कॉरपोरेट घरानों के साथ नाता अटूट होना सत्ता का निर्माण साबित होता रहा है, इसलिए ताजा क्रम हो या पिछले समय बीते हुए कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में किए गए फैसलों को आने वाले समय में रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि आखिरकार कर्ज देने वाले शाहूकार का हर सियासी नेता उनके इशारों के बिना कोई भी समझौता नहीं कर सकता। 4 जनवरी की बैठक का आधार भाजपा के गले में फसी उस हड्डी के मुताबिक है, जो चुनावी कर्जदार होने के कारण अपने स्थान से हिल नहीं सकती। यही कारण है कि विकास के नाम पर इन कॉरपोरेट घरानों के लिए उद्योगिक विकास करने के लिए सरकारी जमीन को मिट्टी के भाव में देना सत्ताधारी पक्ष की मजबूरी भी होती है। इसी आधार के तहत काले कानून लाए गए, जिनको बनाना केंद्र सरकार की मजबूरी भी है और बदलाव चाहे तो हो सकता है।

किसान आंदोलन सफलतापूर्वक छू रहा है बुलंदियों को
जिस तरीके से किसानों के आंदोलन को विदेशों से खुला समर्थन और खुली आर्थिक मदद मिलने से यह आंदोलन सफलतापूर्वक पहली बार बुलंदियों को छू रहा है। इसी तरह पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के किसानों परिवारों के पुत्र भारतीय सेना और सुरक्षा बलों में भर्ती होकर देश की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए बर्फीले तूफानों और आतंकवाद को खत्म करने का पहरा दे रहे है। किसी भी सरकार को इनका विकल्प कभी नहीं मिल सकता। यही तो कारण था जब पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा लगाया था। इस नारे से भाजपा और केंद्र सरकार को कुछ शिक्षा लेने की जरूरत है, क्योंकि यह नारा कॉरपोरेट घरानों का कोई भी सदस्य कभी नहीं लगाता, जबकि इस नारे में राष्ट्रीयता, एकता की नींव सद्भावना का संदेश देती है।



क्या कॉरपोरेट घरानों के पास है किसानों द्वारा की जा रही खुदकुशियों को रोकने का हल  
असल में केंद्र सरकार ने भले ही किसान आंदोलन के प्रभाव का एहसास करने में कुछ देरी तो जरूर की है। समझा जाए कि किसानों के साहस की परीक्षा ली है केंद्र सरकार ने, परंतु केंद्र सरकार को इस बात का एहसास होना जरूरी है कि राष्ट्रीय कोष में खेतीबाड़ी का हिस्सा अब 15 प्रतिशत रहने के अतिरिक्त और कम होता जा रहा है, जबकि भारत खेती प्रदान देश है, पर किसानों के आंदोलन को ठेस पहुंचाने के लिए चाहें प्रधानमंत्री फसल बीमा के तहत 17 करोड़ 450 लाख रुपयों का बीमा प्रीमियर अदा करने के अतिरिक्त किसानों को खेती बीमे की रकम का 87 हजार करोड़ रुपए भी दे चुके हो, पर केंद्र सरकार को यह सोचना होगा कि 2018 के सर्वे के मुताबिक देश के 52.7 प्रतिशत किसान परिवार कर्जे में डूबे होने के कारण किसानों द्वारा लगातार खुदकुशियां कर रहे हैं, इसे कैसे रोका जाए। इसका समाधान उन कॉरपोरेट घरानों के पास है, जो केंद्र सरकार का जहां अरबों रुपयों का कर्जा वापस नहीं लौटा पाए, जबकि किसी भी सत्ताधारी सरकार ने गांव और पंचायत स्तर पर छोटे, लघु उद्योग और खेती उत्पादन के सुरक्षित स्टॉक न बनाकर, फसल आधारित प्रोसैसिंग उद्योग गांव स्तर पर न लगाकर किसानों को बर्बाद करने का रास्ता अपनाया हुआ है, जो किसी भी सत्ताधारी पार्टी के लिए हमेशा घातक साबित होगा।  अच्छा होता कॉरपोरेट घराने गांव स्तर पर खेती फसल के प्रोसेसिंग यूनिट विकास करने के लिए सत्ताधारी सियासी नेताओं का सहारा लेकर लगाने से किसानी को बचा पाते। आखिरकार तब भी कॉरपोरेट घराने मुनाफे में रहते और साथ में किसानों की गरीबी भी दूर हो पाती।

आंदोलन का सभी पार्टियां सियासी लाभ उठाने में व्यस्त 
जाहिर है, किसान आंदोलन का भाजपा रहित सभी पार्टियां सियासी लाभ उठाने में व्यस्त है, परंतु हालात के मुताबिक शिरोमणि प्रबंधक कमेटियों और शिरोमणि अकाली दल ने जिस मन, तन, धन से किसानों के आंदोलन से मजबूत किया है। शिअद के पुराने सियासी धब्बे जल्द साफ होंगे और आगामी चुनावों में किसानों की इस पार्टी को अन्य सियासी दलों के मुताबिक अधिक लाभ भी हो सकता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्यों को कानूनी दायरे में लाने का फैसला होगा किसानों की जीत
4 जनवरी की बैठक में यदि केंद्र सरकार तीन काले कानूनों में किसान नेताओं की राय के मुताबिक यदि कुछ बदलाव करके न्यूनत्तम समर्थन मूल्यों को कानूनी दायरे के तहत लाने का फैसला करती है तो यह किसान की अटल जीत होंगी, पर इसके अतिरिक्त इस संघर्ष में मारे गए किसानों के परिवारों को कोई मुआवजा देना राज्यों व केंद्र सरकार के हित में होगा। वैसे तो यह संकेत मिले है कि किसान आंदोलन में शहीद हुए किसानों की याद में संघर्ष स्थल के स्थान पर एक शहीदी गुरुद्वारा बनाने की भी किसानों की राय है, जो शहीद किसानों का शहीदी स्थल साबित होगा।

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