पंचायती चुनाव दंगलः खानापूर्ति तक सीमित है महिला सरपंचों की भूमिका

punjabkesari.in Monday, Dec 17, 2018 - 09:01 AM (IST)

गुरदासपुर(हरमनप्रीत): पंजाब में होने जा रहे पंचायती चुनावों में महिलाओं को पुरुषों के बराबर प्रतिनिधित्व देने के लिए बेशक पंजाब सरकार ने पहलकदमी करते हुए इस बार सरपंच की सीटों में महिलाओं  का कोटा 33 प्रतिशत से बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दिया है, परन्तु दूसरी तरफ देश के अन्य प्रांतों की तरह पंजाब में स्थिति यह बनी हुई है कि सरपंच बनने वाली अनेक  महिलाएं सिर्फ रबड़ की मोहर ही बन कर रह जाती हैं, जबकि उनकी जगह पर सारा काम उनके पिता, पति या भाई ही करते हैं।

संविधान के 73वें संशोधन में शामिल हुआ था महिलाओं के प्रतिनिधित्व का उपबंध
संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार पंचायती राज प्रणाली में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का उपबंध भी शामल किया गया था। इस के अंतर्गत हर स्तर की पंचायती संस्थाओं में 1/3 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं। इस दौरान सरपंची की सीटों में से 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर उनको चुनाव लड़ाया जाता था, परन्तु इस साल पंजाब सरकार ने महिलाओं  का प्रतिनिधित्व प्रतिशत बढ़ा कर 50 प्रतिशत कर दिया, परन्तु साथ ही यह मुद्दा भी चर्चा का विषय बना हुआ है कि महिलाओं को सही मायनों में पुरुषों के बराबर प्रतिनिधित्व देने के लिए हमारे समाज की सोच अभी भी पूरी तरह विकसित नही हुई।

अपने हस्ताक्षर भी स्वयं नहीं करती महिला सरपंच
पंजाब की पंचायती संस्थाओं में महिलाओं को चुनाव लड़ा कर उनको पंच, सरपंच बनाने का सिलसिला कई साल पहले से शुरू हो चुका है और इस बार यह संख्या और बढऩे जा रही है, परन्तु हैरानी की बात है कि सरपंच बनने वाली कुछ प्रतिशत महिलाओं को छोड़ कर बहुत संख्या महिला सरपंच ओर पंच के नाम सिर्फ सरकारी कागजों में ही चलते रहते हैं, जबकि उनका सारा काम और फैसले उनके पिता, पति, भाई और ससुर आदि करते हैं। इस मामले में ना तो महिलाएं अपने संवैधानिक  अधिकार के अनुसार अपने अधिकारों का प्रयोग करने की कोशिश करती हैं और ना ही उन के परिवार के सदस्य विभिन्न कारणों  से उन को ऐसा करने की अनुमति देते हैं। यह अक्सर देखने में आता है कि बहुत-सी महिला सरपंचों के पति ही उनकी जगह पर बैठकें भी करते हैं और वही उनके हस्ताक्षर भी कर देते हैं। अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं होता कि वास्तव में सरपंच महिला है कि उस का पति या कोई अन्य रिश्तेदार।

कानून के साथ-साथ सोच बदलने की जरूरत
यह माना जा रहा है कि बेशक कांग्रेस सरकार ने महिलाओं के लिए बड़ा प्रयास करते महिलाओंं के लिए आरक्षण में विस्तार किया है, परन्तु जब तक समाज की मानसिकता बदलने के अलावा महिला अपने अधिकारओं ओर पद का प्रयोग खुद करने संबंधी पूरी तरह सुचेत नहीं होगी, तब तक ऐसे प्रयासों की सिर्फ दफ्तरी कार्रवाई और खानापूर्ति तक ही सीमित रहने की संभावना है।

कानूनी शिकंजा कसने की जरूरत
महिलाओं की जगह पर उनके परिवार के सदस्यों द्वारा काम किए  जाने के कारण यह न सिर्फ महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर रहा है, बल्कि इस के साथ कई कानूनों की भी धज्जियां उड़ रही हैं। किसी भी व्यक्ति की तरफ से किसी अन्य के हस्ताक्षर किए जाना अपने आप में बड़ा जुर्म है, परन्तु इस के बावजूद यह सिलसिला जारी है। इसी के तहत विभिन्न बैठकों  में एक चुने हुए प्रतिनिधि की जगह  किसी अन्य व्यक्ति का शामिल होना भी नियमों के खिलाफ है, इसके बावजूद भी ऐसा हो  रहा है। इतना ही नहींष और भी कई कामों के दौरान ऐसे कई नियमों का उल्लंघन होता आ रहा है, इसलिए यह समझा जा रहा है कि यदि सरकार सही मायनों में महिलाओं  का प्रतिनिधित्व बढ़ाना चाहती है तो कानून का शिकंजा भी कसना पड़ेगा।

संबंधित विभाग के मंत्री के शहर जैसी मिसाल की जरूरत
पंजाब के ग्रामीण विकास और पंचायत मंत्री तृप्त रजिन्द्र सिंह बाजवा से संबंधित हलका फतेहगढ़ चूडिय़ां की नगर कौंसिल में पिछले महीने 3 महिला पार्षदों की जगह पर उनके पतियों द्वारा किए जा रहे काम का सख्त नोटिस लेते हुए विभाग के प्रमुख सचिव ने नोटिस जारी किए थे। इसके अंतर्गत न सिर्फ पार्षदों की जवाब तलबी की गई बल्कि इस कौंसिल के प्रधान ओर ई.ओ. को भी नोटिस दे कर जवाब मांगा गया है कि उन्होंने महिला पार्षदों की जगह उन के पतियों द्वारा की जा रही बैठकों और कार्यों को नजर अंदाज क्यों किया?

 

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