क्या राहुल गांधी के फेल होने के चलते सोनिया गांधी फिर संसदीय दल की नेता बनने को हुईं मजबूर!

punjabkesari.in Sunday, Jun 02, 2019 - 09:30 AM (IST)

जालंधर(चोपड़ा): 2017 में गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपते हुए कहा था कि राहुल गांधी मेरे भी नेता हैं।  खुद के चुनाव लड़ने का फैसला भी कांग्रेस पर ही छोड़ दिया था, परंतु लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद ऑल इंडिया कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी की बजाय एक बार फिर से सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया है। इसके बाद चर्चा शुरू हो गई है कि खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर सक्रिय राजनीति से दूर रहने वाली सोनिया गांधी को अपने पुत्र राहुल गांधी के फेल होने व देश की राजनीति में कांग्रेस की मौजूदा स्थिति की मजबूरियों के चलते पुन: संसदीय दल का नेता बनने को मजबूर होना पड़ रहा है। 

राहुल की वायनाड से जीत कांग्रेस के लिए राहत की बात 
लोकसभा चुनाव प्रत्याशियों के नाम फाइनल करने के दौरान कांग्रेस का फैसला रहा कि सोनिया गांधी रायबरेली से और राहुल गांधी अमेठी से चुनाव लड़ें। लोकसभा चुनावों में सोनिया तो रायबरेली से जीत गई परंतु राहुल अमेठी से हार गए। कांग्रेस के लिए राहत की बात रही कि राहुल दूसरी सीट वायनाड से चुनाव जीत गए वर्ना उनके लिए  संसद के दरवाजे भी बंद हो जाते। 

राहुल के अध्यक्ष पद को लेकर संशय बरकरार
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया परंतु कांग्रेस कार्यकारिणी ने उसे खारिज कर दिया था जिसके बाद लगा कि उनको संसदीय दल का नेता चुना जाएगा जिसके उपरांत वह फिर से पार्टी कार्यों में जुट जाएंगे, पर कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में इस सबके विपरीत फैसला हुआ। अभी राहुल के अध्यक्ष पद को लेकर संशय बरकरार है। कांग्रेस के कुछ सांसद राहुल के अध्यक्ष होने के दावे कर रहे है परंतु राहुल की तरफ से उनके अध्यक्ष बने रहने अथवा न होने के  मामले में कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है। संसदीय दल का नेता चुने जाने के बाद अब लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडगे का स्थान कौन लेगा क्योंकि वह भी लोकसभा चुनाव हार गए हैं। राज्यसभा में कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा, इसका अंतिम फैसला भी सोनिया ही करेंगी। 

आखिर फिर फ्रंट फुट पर क्यों आईं सोनिया गांधी
संसदीय दल की नेता चुने जाने के बाद राजनीतिक गलियारों में सबसे बड़ा सवाल बना है कि आखिर सोनिया गांधी को राजनीतिक लड़ाई के मैदान में फ्रंट फुट पर क्यों लौटना पड़ा है? जिक्रयोग्य है कि सोनिया ने राजनीति से संन्यास तो नहीं लिया था परंतु अपने पुत्र को देश की राजनीति में स्थापित करने के लिए पार्टी की सारी बागडोर सौंप दी थी ताकि देश की सबसे पुरानी पार्टी की विरासत को संभाल कर वह उसे आगे बढ़ाएं।  कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम चिंताजनक रहे और राहुल पार्टी को फिर से खड़ा करने में विफल साबित हुए। राहुल के नेतृत्व में 5 सालों के संघर्ष के बाद कांग्रेस का स्कोर 44 सीटों से बढ़कर 52 तक ही पहुंच पाया।

विपक्षी दल का स्थान हासिल करने में भी नाकामयाब हुई कांग्रेस
 पर्याप्त सांसदों की संख्या 55 न हो पाने के कारण कांग्रेस विपक्षी दल का स्थान हासिल करने में भी नाकामयाब साबित हुई है। वहीं 2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के बाद सोनिया गांधी ने संकेत दिए थे कि सक्रिय राजनीति से तो वह बिल्कुल दूर रहेंगी, लेकिन यू.पी.ए. की चेयरपर्सन होने के नाते विपक्षी खेमे को एकजुट रखने की कोशिश जरूर करेंगी जिसको लेकर सोनिया गांधी ने आम चुनावों से काफी पहले से लेकर वर्तमान तक खासे प्रयास भी किए लेकिन वह सफल न हो पार्ईं। 

चुनाव के बाद बिखरा विपक्ष
देश में विपक्ष इस कद्र बिखरा पड़ा है कि चुनाव नतीजों से पहले प्रस्तावित मीटिंग नतीजों के 10 दिनों बाद तक नहीं हो पाई और न ही मीटिंग को लेकर कोई तारीख निर्धारित हो सकी है। ऊपर से राहुल द्वारा इस्तीफे की पेशकश पर अड़े रहने ने कांग्रेस की स्थिति पेचीदा बना दी है। मौजूदा हालात को देखते हुए ही सोनिया गांधी को कांग्रेस के बचे-खुचे कुनबे को समेटे रखने के लिए खुद आगे आकर संसदीय दल का नेता बनने को मजबूर होना पड़ा है। 

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