देश का पेट भरने के अलावा क्या शुद्ध हवा देना भी किसान की ही जिम्मेदारी है?

punjabkesari.in Monday, Nov 04, 2019 - 11:42 AM (IST)

जालंधर(सूरज ठाकुर): वातावरण में प्रदूषण को लेकर जिस तरह तमाम अंगुलियां किसानों की तरफ उठी हैं उससे एक बड़ा सवाल और उठ खड़ा हुआ है। सवाल यह कि क्या अब किसान को लोगों की भूख मिटाने के साथ-साथ उनके सांस लेने के लिए भी वायु की खेती करनी होगी? इस देश में हर साल अक्तूबर से नवम्बर तक पराली जलने से हुए एयर पॉल्यूशन पर इस कदर बहस होती है कि सत्ता के गलियारों में नेताओं को भी घुटन-सी महसूस होने लगती है। आनन-फानन में वे इसका सारा दोष आर्थिक संकट की मार झेल रहे किसानों के सिर मढ़ देते हैं।

यह घटनाक्रम खासकर तब शुरू होता है जब राजधानी दिल्ली के नागरिकों की धुएं की वजह से विजिबिलिटी कम होने लगती है और उन्हें सांस लेने में दिक्कत आती है। जबकि हकीकत यह है कि दिल्ली में होने वाले कुल एयर पॉल्यूशन में पराली और बायोमास का पॉल्यूशन मात्र 4 फीसदी ही है। पराली जलाना भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981 के तहत अपराध है। विडंबना तो यह है कि इस कानून को लागू करने की कवायद 34 साल के बाद 2015 में हुई जब किसान बड़ी तादाद में कर्ज के बोझ में पूरी तरह डूब चुके थे।

खेत और खेती का सियासीकरण
आजादी के बाद से ही ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे के साथ किसान और किसानियत का सियासीकरण हो गया था। हालात तब खराब हो गए जब पूरे देश का पेट भरने वाला किसान सत्ता की बुनियाद में किसी भट्ठे की ईंट की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा। केंद्र में बैठी वर्तमान मोदी सरकार की बात करें तो वह किसानों की आय 2022 तक दोगुना करने वाली है। 

जबकि सच्चाई यह है कि कर्ज में डूबे किसान का देश में वायु प्रदूषण फैलाने में बहुत ही कम हिस्सा है। पराली न जलाने के एवज में सरकार किसान की आर्थिक मदद तो कर ही नहीं पा रही है, उलटा नौकरशाह उसे उस कानून के तहत सताने पर आमादा हैं। समस्या को बिना सुने ही कानून-कायदे थोप कर किसानों के चालान काटे जा रहे हैं। प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम लागू हुए 38 साल बीत चुके हैं। इतने समय में केंद्र और सभी राज्यों की सरकारें समझदारी से किसानों को इस समस्या से आसानी से निजात दिला सकती थीं लेकिन कुर्सी पाने के लिए आतुर नेताओं का कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं गया।

क्यों हालात खराब हैं दिल्ली के
द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीच्यूट के मुताबिक दिल्ली में सर्दियों के समय प्रदूषण का स्तर वाहन, इंडस्ट्री और बायोमास, गन्ने की खोई, धान का भूसा, अनुपयोगी लकड़ी आदि बॄनग के कारण बढ़ता है। स्टडी के मुताबिक सॢदयों में दिल्ली में वाहनों से बढऩे वाले प्रदूषण की मात्रा 24 फीसदी है जबकि 25 फीसदी प्रदूषण धूल के कारण होता है। प्रदूषण में सर्वाधिक भूमिका 27 फीसदी के साथ उद्योगों की है। पराली और बायोमास जलाने से केवल 4 फीसदी प्रदूषण फैल रहा है। स्टडी के मुताबिक एन.सी.आर. के करीब 30 लाख घरों में खाना पकाने के लिए बायोमास जलाया जाता है। जब पंजाब-हरियाणा में पराली जलाई जाती है तो विभिन्न प्रकार के वायु प्रदूषण एक साथ होने से दिल्ली की स्थिति भयावह होने लगती है। सरकार को कोर्ट के आदेशों के मुताबिक लोगों को एडवाइजरी जारी करनी पड़ती है। इस बार तो हालात इतने खराब हो गए कि राजधानी में हैल्थ एमरजैंसी घोषित करने के बाद एडवाइजरी जारी करनी पड़ी। शिक्षण संस्थान बंद करने के भी आदेश जारी करने पड़े।

क्या किसान दोषी है?
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एन.जी.टी.) ने दिसम्बर 2015 में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में पराली जलाने पर पाबंदी लगा दी थी। पराली जलाना भारतीय दंड संहिता और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981 के तहत अपराध है। एन.जी.टी. के आदेशों के बाद इस कानून को इन प्रदेशों में लागू करना सरकारों के गले की फांस बन गया है। राज्यों के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं। कर्ज माफी राजनीतिक दलों का मुख्य चुनावी एजैंडा रहा है। जीतने के बाद सरकारों ने किसानों के कर्ज भी माफ किए हैं फिर भी किसान खुश नहीं हैं। पराली खरीदने की मशीनों पर 50 फीसदी सबसिडी है। सीमांत किसानों के लिए इसे खरीदना संभव नहीं है। सरकारी मशीनें पराली काटने के लिए कम पड़ रही हैं। नौकरशाही चालान काट कर अपना काम एन.जी.टी. को दिखा रही है। सवाल यही है कि क्या किसान दोषी है? 

क्यों पंजाब और हरियाणा को कोसती है दिल्ली सरकार?
देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में पूरे देश की धर्म और संस्कृति बसी हुई है। विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आभास और गर्व दिल्ली के लोगों की रग-रग में बसा हुआ है। एक समय देश के हर कोने में उत्पन्न होने वाले विवादों, बढ़ते अपराधों और कई संवैधानिक मूल्यों को लेकर दिल्ली से ही आंदोलन हुए। ऐसे में वहां के लोगों की समस्या का हल किसी सरकार के पास न हो तो वाजिब है कि सरकार अपने सिर की बला किसी और पर थोप दे। शायद यही वजह है कि पिछले दो साल से दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की जुबान पर पंजाब और हरियाणा का नाम आ जाता है। वजह और लाजमी तब हो जाती है जब चुनाव सिर पर हों और वायु प्रदूषण से लोगों का दम घुट रहा हो। आंकड़ों से साफ जाहिर है कि दिल्ली सरकार 27 फीसदी औद्यौगिक, 25 फीसदी धूल और 24 फीसदी वाहन प्रदूषण को रोकने में नाकामयाब हुई है। इस वजह से वायु प्रदूषण का निस्तारण तो नहीं हुआ मगर सियासीकरण जरूर हो गया।

क्या कहते हैं किसान
पंजाब की भारतीय किसान यूनियन ‘एकता उगराहां’ ने तो स्पष्ट कर दिया है कि किसान किसी भी हाल में पराली जलाना नहीं छोड़ेंगे। यूनियन का कहना है कि शुद्ध वातावरण की जिम्मेदारी उनकी ही नहीं सरकार की भी है। यूनियन के नेता अलग-अलग जिलों के गांवों में रैलियां निकाल रहे हैं। किसानों को कह रहे हैं कि वे सरकार से डरकर पराली जलाना छोड़ेंगे। पराली से सिर्फ  8 प्रतिशत ही प्रदूषण होता है लेकिन प्रदूषण के लिए सिर्फ किसानों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

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