बाल दिवस की एक झलक ये भी, कचरे के ढेर में कचरा हो रहा बचपन

punjabkesari.in Tuesday, Nov 15, 2022 - 02:37 PM (IST)

संगरूर/ बरनाला (विवेक सिंधवानी, गोयल): बाल दिवस यानी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन जिन्होंने बच्चों में आधुनिक भारत की कल्पना देखी। बच्चे उनके बेहद प्रिय थे, जिनसे मिलना और उनके साथ रहना उन्हें बहुत भाता था, पर देश की आजादी के वर्षों बाद और शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भी कुछ बच्चों का बचपन कूड़े के ढेर पर है।

केंद्र व राज्य की सरकारों द्वारा बच्चों के लिए संचालित ढेर सारी योजनाओं का उन बच्चों के लिए कोई मायने नहीं है, जो दो वक्त की रोटी के लिए कूड़े के ढेर को तलाश रहे हैं। सरकार ने शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया। गरीबों को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराने को ले खाद्य सुरक्षा अधिनियम को अमलीजामा पहनाया। इतना ही नहीं गरीबों के कल्याणार्थ व सहायतार्थ कई योजनाएं चलाईं, बावजूद गरीब तबके की गरीबी अब तक दूर नहीं हो पाई। इनके बच्चे आज भी कूड़े के ढेर पर अपना भविष्य तलाशते हैं।

समाज में एक ऐसा भी वर्ग है जिनका जीवन ही कचरे के ढेर पर टिका है। यानि कूड़े की ढेर पर ही वह अपनी रोटी की जुगाड़ में लगा होता है। कूड़े की ढेर पर जिंदगी से जूझते और बीमारियों की खुली चुनौती कबूलते कुछ चुनने वालों की जमात आज अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। सूरज की पहली किरण के साथ पीठ पर प्लास्टिक का थैला या बोरा लिए निकल पड़ने वाले इन बच्चों के स्वास्थ्य या सुरक्षा की गारंटी कोई लेने को तैयार नहीं। कूड़ा-कचरा व गंदगी के बीच रहने वाले को आज मानवीय संवदेना से भी परे समझा जाता है।

कूड़े के बीच से लोहा, सीसा, बोतल, लकड़ी, कागज आदि चुनने वाले ये बच्चे उपेक्षा के शिकार हैं। कूड़े-कचरे के बीच से जीविकोपार्जन के लिए कुछ चुनना इनकी नियति बन गई है, जबकि इन नौनिहालों की सुविधा, साधन व सुरक्षा के प्रति सरकारी महकमा बिल्कुल निश्चिंत सा है। चुने सामान को ले ये बच्चे कबाड़ी वालों के पास जाते हैं और कबाड़ी वाले कुछ पैसे देकर कुछ सामान खरीद लेते हैं। यह पैसा न्यूनतम मजदूरी के समान भी नहीं होता है, बावजूद जोखिम लेकर कूड़े की ढेर से दो जून की रोटी जुगाड़ करने में ये मशगूल रहते हैं।

हाथ में कॉपी कलम की जगह कचरे के ढेर में भविष्य तलाशते बच्चे शिक्षा से दूर हो रहे हैं। अबोध होने की वजह से फिलहाल इन्हें कुछ भी पता नहीं है। हालांकि पढ़ने की ललक इन बच्चों में भी है। ज्योति तथा हरीश ने बताया कि दोनों पढ़ना चाहते हैं, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति उस लायक नहीं है कि वे शिक्षा हासिल करने के लिए किसी स्कूल की ओर कदम बढ़ा सकें। दोनों बच्चों ने बताया कि ड्रैस में अन्य बच्चों को स्कूल जाते देख उन्हें भी स्कूल जाने की जिज्ञासा होती है।

वे भी चाहते हैं कि पढ़-लिखकर नौकरी हासिल करें, लेकिन गरीब मां-बाप को देख उनके सारे सपने बिखर जाते हैं। प्लास्टिक बीन कर या फिर शहर के विभिन्न होटल व चाय-नाश्ते की दुकान में मजदूरी कर परिवार को दो जून की रोटी उपलब्ध कराने वाले सभी बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है। हालांकि ऐसा सरकारी कागजों पर ही दिखता है, सच्चाई यह है कि शहर के लगभग सभी होटलों में बाल मजदूर काम कर रहे हैं जिन्हें सुनहरे भविष्य की दरकार है। कई बाल श्रमिक कॉपी व किताब की जगह प्लेट व थाली धोकर अपना पेट पाल रहे हैं।

बाल श्रमिकों से काम लेना कानूनन जुर्म है। बाल श्रमिकों से काम लेने वालों के खिलाफ बाल श्रम निषेध एवं विनियमन अधिनियम 1986 एवं अन्य कानूनों के तहत कठोर कार्रवाई का प्रावधान है‌, बावजूद इसके शहर एवं गांवों के सभी दुकानदार बच्चों से काम लेते हैं, फिर भी विभाग व प्रशासन कुछ कुछ भी कर पाने में अक्षम है। प्रशासन द्वारा बाल मजदूरी के रोकथाम के लिए ठीक ढंग से पहल नहीं करने के कारण बच्चे होटलों एवं ढाबों में मजदूरी के लिए पहुंच रहे हैं।

जिले में हजारों बच्चे आज भी हैं शिक्षा से वंचित

बच्चों को नि:शुल्क व अनिवार्य स्कूली शिक्षा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सरकार कई योजनाएं चला रही हैं। सरकार के लाख प्रयास के बावजूद आज भी जिले में हजारों बच्चे शिक्षा से वंचित है। एक तरफ आधुनिकता के इस दौर में हम चांद पर जिंदगी की तलाश में जुटे हैं, वहीं स्कूली शिक्षा से वंचित ये बच्चे दिन भर कूड़े-कचरे के ढेर पर जिंदगी तलाशते नजर आ रहे हैं।

कहने के लिए स्वच्छता अभियान को लेकर बड़े-बड़े बैनर शहर के तमाम चौक-चौराहों पर लगाए जाते हैं। सरकारी कार्यालयों के पास होर्डिंग के साथ ही सरकारी अधिकारी को भी कड़े निर्देश दिए गए हैं ताकि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत मिशन का सख्ती से पालन हो, बावजूद शहर में जमा कचरों के ढेर में चुनाई करते बच्चे सरकारी योजना पर भी सवालिया निशान खड़ा कर रहे हैं। कचरे के ढेर में बचपन कुछ इस तरह गुम हुआ कि शिक्षा की कौन कहे दो वक्त की रोटी के लिए कचरे के ढेर पर ही जीवन की तलाश उनकी नियति बन चुकी है।

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News Editor

Urmila

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