ना वायदे चले, ना नेताओं का जादू, राजग की आंधी के सामने तिनकों की तरह बिखर गया महागठबंधन
punjabkesari.in Saturday, Nov 15, 2025 - 03:30 PM (IST)
जालंधर(अनिल पाहवा): बिहार चुनाव 2025 के नतीजों ने पूरे राज्य की राजनीतिक तस्वीर को बिल्कुल साफ कर दिया है। एन.डी.ए. ने अभूतपूर्व जीत दर्ज करते हुए लगभग पूरा मैदान समेट लिया, जबकि महागठबंधन और जनसुराज दोनों अपनी उम्मीदों की परछाइयों तक नहीं पहुंच सके। तेजस्वी यादव को चेहरा बनाकर उतरे महागठबंधन से लोग जिस तेज़ी और बदलाव की उम्मीद कर रहे थे, वह जमीन पर उतर नहीं पाया। सबसे बड़ा सवाल यही है—तेजस्वी और राहुल गांधी का जादू इस बार क्यों नहीं चला? राज्य में बेरोजगारी और प्रवास जैसी गंभीर चुनौतियों के बावजूद “हर घर नौकरी” का वादा भी लोगों को पूरी तरह आकर्षित नहीं कर सका। वहीं दूसरी तरफ, 15 साल से अधिक शासन के बावजूद नीतीश कुमार को लेकर जनता में कोई थकान या नाराज़गी उभरते नहीं दिखी। यही विरोधाभास महागठबंधन की हार का मूल संकेतक साबित हुआ।
मुद्दों की लड़ाई में पिछड़ा महागठबंधन
महागठबंधन बेरोज़गारी, शिक्षा, कृषि और महंगाई जैसे मुद्दों को उठाने तो मैदान में उतरा, लेकिन वह इनको एक ठोस नैरेटिव में बदल नहीं पाया। वहीं, एन.डी.ए. ने विकास, सुरक्षा और स्थिर शासन के अपने संदेश को ज़ोरदार तरीके से हर गली-मोहल्ले तक पहुंचाया। तेजस्वी यादव की रैलियों में भी वही पुराने वादे सुनाई दिए, जिन पर युवा मतदाता भरोसा नहीं जता सके। तेजस्वी यादव ने रोजगार को चुनावी केंद्र में रखा, जो बिहार की सबसे गंभीर समस्या है। लेकिन सरकारी नौकरी हर घर तक पहुँचाने का वादा कई मतदाताओं को अव्यावहारिक लगा। लोगों को इसका ठोस खाका नहीं दिखा और वादा जितना बड़ा था, उतनी ही शंकाएं भी थीं। परिणाम यह हुआ कि युवा मतदाताओं के बीच यह मुद्दा बल लेने के बजाय उलटा असर छोड़ गया।
जंगलराज की परछाई से उबर न पाए
एन.डी.ए. ने पूरे चुनाव में ‘जंगलराज’ की याद लगातार ताज़ा रखी। हालांकि जिन दिनों की बात की जाती है,उन्हें याद करने वाले कम हैं, पर राजद की छवि पर यह ठप्पा आज भी भारी पड़ता है। यह मुद्दा वर्षों से राजद के वोट को काटता आया है और इस बार भी असर साफ दिखा।
सीट बंटवारे ने बिगाड़ा खेल
पहले चरण के नामांकन शुरू होते ही महागठबंधन की अंदरूनी दरारें सामने आने लगीं। कुटुंबा, लालगंज, वैशाली और बछवाड़ा जैसी सीटों पर तालमेल ही नहीं बन पाया। दोस्ताना मुकाबले और आपसी भ्रम ने जनता के बीच यह संदेश दिया कि गठबंधन खुद ही एकजुट नहीं है। विश्वसनीयता पर इसका सीधा असर पड़ा। चुनाव के दौरान अचानक वी.आई.पी. प्रमुख मुकेश साहनी की सभाओं का रद्द होना और सोशल मीडिया पर तेजस्वी–साहनी के बीच मतभेद की खबरें महागठबंधन के भीतर अस्थिरता का संकेत बन गईं।
कई सीटों पर उम्मीदवार बदलने से स्थानीय स्तर पर नाराज़गी खुलेआम दिखी। राजद के परंपरागत मजबूत इलाकों में भी बूथ संचालन कमजोर पड़ा। कांग्रेस के कई प्रत्याशियों को जनता पहचान तक नहीं पाती थी—विश्वसनीयता तो दूर की बात रही। युवाओं, महिलाओं और नए वोट समूहों तक पहुंच बनाने में भी महागठबंधन पिछड़ गया। वो कहते हैं ना कि जमीन की पकड़ ढीली—और हार पक्की। यह चुनाव महागठबंधन को साफ संकेत दे गया है कि केवल पुराने नारे, पुरानी जातीय गणनाएं और कागज़ी गठजोड़ अब जीत की गारंटी नहीं हैं। आज के मतदाता को स्पष्ट नेतृत्व, मजबूत संगठन और भरोसेमंद राजनीतिक कहानी चाहिए—जो विपक्ष तैयार नहीं कर सका।
राजद का जातीय संतुलन बिगड़ा
राजद द्वारा 52 यादव उम्मीदवार उतारने से पार्टी पर जातिवादी छवि का आरोप और मजबूत हुआ। अगड़े वर्ग और अति पिछड़े समुदाय के मतदाताओं को लगा कि उनके लिए जगह सिमट रही है, जिस कारण राजनीतिक संतुलन बिगड़ा और महागठबंधन व्यापक समर्थन जुटाने में विफल रहा। बिहार की सामाजिक राजनीति केवल आंकड़ों का खेल नहीं होती—यह भरोसे, संपर्क और समय पर डिलीवरी पर टिकती है। इस बार महागठबंधन जातीय गणित में इतना आश्वस्त हो गया कि बदलते सामाजिक माहौल को समझ ही नहीं पाया। निम्न वर्ग, पिछड़ी जातियों, पहली बार वोट करने वाले युवाओं और महिलाओं के बीच एक नई राजनीतिक समझ विकसित हो रही थी, जिसका फायदा एन.डी.ए. ने बारीकी से उठाया। उधर महागठबंधन पुराने वोट बैंक के सहारे चुनावी नैया पार लगाना चाहता रहा, जबकि जनता नए विकल्प और स्थिर नेतृत्व की तलाश में थी।
तेजस्वी की कमज़ोर रणनीति
पूरे प्रदेश में दौरे और दर्जनों सभाओं के बावजूद तेजस्वी यादव चुनाव संचालन की असल परीक्षा में फिसलते दिखे। एक तरफ जहां भाजपा के चाणक्य कहे जाते अमित शाह बिहार के लिए रणनीति में शामिल थे, वहीं दूसरी तरफ तेजस्वी उस स्तर की रणनीति नहीं बना पाए। तेजस्वी की आवाज़ तो गूंजती रही बिहार में, लेकिन साथी दलों के साथ समन्वय की नींव कमजोर रही। सीटों और मुद्दों पर सांझी रणनीति की कमी ने पूरे अभियान को बिखरा हुआ बना दिया।
कांग्रेस बनी कमजोर कड़ी
गठबंधन की बड़ी सांझेदार होते हुए भी कांग्रेस इस चुनाव में सबसे भारी बोझ साबित हुई। टिकट बंटवारे पर असंतोष, कई सीटों पर गलत प्रत्याशी, संगठन का सुस्त ढांचा—इन सभी ने माहौल बिगाड़ा। राजद और कांग्रेस के बीच सीट बंटवारे पर खींचतान शुरुआती दौर से ही सामने था, जिसका असर पूरे चुनाव अभियान पर पड़ा। कांग्रेसी प्रचार में भी एकरूपता नहीं दिखी और कार्यकर्ताओं में जोश की कमी साफ महसूस हुई।

