शुगर के मरीजों के लिए बड़ी खुशखबरी! अब दवाई के बिना भी कंट्रोल रहेगी Diabetes
punjabkesari.in Monday, Aug 04, 2025 - 01:12 PM (IST)

चंडीगढ़ (पाल): अब तक टाइप-2 डायबिटीज को जीवनभर चलने वाली लाइलाज बीमारी माना जाता रहा है, जिसमें रोजाना दवाइयां, सख्त डाइट और लाइफस्टाइल मैनेजमेंट अनिवार्य होते हैं। मगर पी.जी.आई. की एक नई रिसर्च ने यह धारणा बदलने की दिशा में बड़ा कदम उठाया है। इस स्टडी में यह साबित A किया गया है कि अगर डायबिटीज के शुरूआती वर्षों में सही रणनीति अपनाई जाए, तो मरीज दवाइयों के बिना भी ब्लड शुगर को सामान्य स्तर पर ला सकते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में रीमिशन कहा जाता है, मतलब एच.बी.ए. 1सी. 6.5 प्रतिशत से कम और लगातार तीन महीने तक बिना दवा के शुगर सामान्य रहना।
पी.जी. आई. की इस डायरेम-1 नामक स्टडी की अगुवाई एंडोक्राइनोलॉजी विभाग से डॉ. रमा वालिया ने की है। उन्होंने बताया कि यह रिसर्च पूरी तरह मेड-इन-इंडिया अप्रोच पर आधारित है, जिसमें महंगे सर्जिकल ऑप्शन या कट्टर डाइटिंग का सहारा नहीं लिया गया। स्टडी में उन्हीं मरीजों को शामिल किया गया जिनकी डायबिटीज 5 साल से कम समय पहले डायग्नोज हुई थी और ब्लड शुगर अब भी नियंत्रण में था। इन मरीजों को 3 महीने तक नई और पारंपरिक दवाइयों के संयोजन के साथ संतुलित डाइट व फिजिकल एक्टिविटी की गाइडलाइन दी गई। इसके बाद सभी दवाइयां बंद कर दी गई और अगले तीन महीने उनकी शुगर लेवल की निगरानी की गई कि क्या बिना दवा के भी उनका ब्लड शुगर सामान्य रहता है या नहीं।
स्टडी के नतीजे बेहद अच्छे दिखें हैं। लगभग 31 प्रतिशत प्रतिभागियों ने तीन महीने तक बिना दवाइयों के अपनी शुगर सामान्य स्तर (एच.बी.ए.सी. 6.5 प्रतिशत) पर बनाए रखी। खास बात यह है कि इसमें नई दवाइयों जैसे लिरागलूटाइड और डैपाग्लिफ्लोजिन के साथ-साथ पारंपरिक दवाइयों ग्लिमिपराइड और विल्डाग्लिप्टिन का भी समान प्रभाव देखा गया। यानी महंगी दवाइयों के बिना भी यह रणनीति कारगर हो सकती है।
वजन घटा पर गेमचेंजर बनी आंतरिक चर्बी की कमी
हालांकि मरीजों का औसत वजन केवल 4-5 किलो तक ही घटा, लेकिन एम.आर.आई. स्कैन सेयह सामने आया कि उनके लिवर और पैक्रियाज (अग्न्याशय) में जमा आंतरिक फैट में 50 प्रतिशत तक गिरावट आई। यह फैट (वसा) ही इंसुलिन रेजिस्टेंस और डायबिटीज को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाती है। जब ये फैट्स कम हुए तो अग्न्याशय को ब्रेक मिला और उसकी कार्यक्षमता में सुधार देखा गया।
दवाइयों के साइड इफेक्ट नहीं, कम उम्र वाले भी पा सकते हैं फायदा
स्टडी में यह भी पाया गया कि जिन मरीजों में रीमिशन हुआ, उनमें बीटा सेल फंक्शन बेहतर और इंसुलिन रेजिस्टेंस कम थी। खास बात यह रही कि उम्र, वजन, डायबिटीज की अवधि जैसे कारकों पर यह सफलता निर्भर नहीं थी। यानी यह रणनीति डायबिटीज के शुरूआती वर्षों में किसी भी मरीज के लिए अपनाई जा सकती है। दवाइयों के साइड इफेक्ट भी न के बराबर रहे और लो शुगर जैसी कोई गंभीर समस्या भी सामने नहीं आई।
क्योर नहीं, मगर दवाओं से ब्रेक जरूर
हालांकि डॉक्टरों ने यह साफ किया कि रीमिशन का मतलब बीमारी का स्थायी इलाज नहीं है। यह एक अवसर है जहां मरीज बिना दवा के सामान्य जीवन जी सकता है, बशर्ते वह लाइफ स्टाइल में सुधार को जारी रखे। यह एक नया टर्निंग प्वाइंट है, जो मरीजों को यह विकल्प देता है कि अगर शुरूआत में सही कदम उठाए जाएं तो डायबिटीज पर जीवनभर दवा खाने की बाध्यता नहीं रहेगी। डॉ. रमा वालिया ने कहा यह रिसर्च एक बड़ी उम्मीद का संदेश है। अगर मरीज जल्दी और सही इलाज शुरू करें तो उन्हें जिंदगीभर दवाइयों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। यह स्टडी ना केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में आउट पेशेंट क्लीनिक स्तर पर अपनाई जा सकती है। पी.जी.आई. की टीम अब आगेयहरिसर्च कर रही है कि यह रीमिशन कितनी लंबी अवधि तक कायम रह सकता है और क्या इलाज की अवधि बढ़ाने पर इसका असर और बेहतर हो सकता है। मगर फिलहाल यह रिसर्च डायबिटीज के इलाज में एक नई और अच्छी रणनीति के रूप में सामने आई है, जो लाखों मरीजों के जीवन में बदलाव ला सकती है।
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