किसी की मूंछ का सवाल तो किसी के अस्तित्व की जंग बना किसान आंदोलन !

punjabkesari.in Friday, Dec 18, 2020 - 03:11 PM (IST)

चंडीगढ़ (हरिश्चंद्र): केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन विवादित कृषि बिलों के खिलाफ दिल्ली सीमा घेरे बैठे लाखों की तादाद में किसानों का आंदोलन किसी के लिए मूंछ का सवाल है तो किसी के अस्तित्व की लड़ाई। तीन हफ्ते से ज्यादा बीत चुके हैं। इस दौरान केंद्र और किसानों के बीच बैठकों के दौर भी चले मगर न केंद्र सरकार पीछे हटी और न ही किसान झुके। आलम यह है कि छह माह का राशन लेकर पहुंचे किसान बिल वापस कराए बगैर लौटने को तैयार नहीं हैं। वहीं, केंद्र कुछ संशोधनों के लिए तो तैयार है मगर बिल पूरी तरह वापस लेने के लिए नहीं।

गौरतलब है कि सदी से ज्यादा अरसा पहले भी तत्कालीन ब्रिटिश सरकार तीन ऐसे विवादित कृषि बिल लेकर आई थी, जिनका पंजाब में पुरजोर विरोध हुआ था। वर्ष 1907 दौरान लाए गए इन बिलों को लेकर तब भी अंग्रेज सरकार कुछ संशोधन करने को तैयार हो गई थी। ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ मुहिम ने तब ऐसी धूम मचाई थी कि गुजरांवाला, लाहौर और लायलपुर में दंगे तक हो गए थे, जिनमें ब्रिटिश लोगों को निशाना बनाया गया था। मौजूदा आंदोलन अब तक पूरी तरह से शांतिप्रिय रहा है मगर पंजाब और हरियाणा में भाजपा नेताओं के घेराव आदि का सिलसिला शुरू हो चुका है।

Punjab Kesari, neither the central government retreated nor did the farmers bow down

पुराने और मौजूदा किसान आंदोलन में एक बड़ा अंतर यह है कि सोशल मीडिया के जरिये इसे खूब हवा मिल रही है। आम लोग भी यह मानने लगे हैं कि किसानों का चाहे कम नुक्सान होगा मगर बड़े कार्पाेरेट इस बाजार में उतरे तो जरूरी खाद्य सामग्री उनकी पहुंच से दूर हो सकती है। यही वजह है कि 20 दिन से दिल्ली घेरे बैठे किसानों के खिलाफ दिल्ली में आवाज नहीं उठी। उलटे दिल्ली वासी धरनों तक सामान पहुंचा रहे हैं। सोशल मीडिया पर किसानों की वह बात भी सुनाई पड़ती है, जो इलैक्ट्रानिक मीडिया पर नहीं सुनी जाती। लोग किस तरह से लंगर लगा रहे हैं, जरूरत का हर सामान किसानों तक पहुंचा रहे हैं, यह सोशल मीडिया पर इस समय छाया हुआ है। आम लोग भी अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर किसानों के हक में न केवल लिख रहे हैं, बल्कि उनके प्रोफाइल तक ‘आई सपोर्ट फार्मर्स’ जैसे स्लोगन से अटे पड़े हैं।

फिर वही दिसंबर की सर्दी और केंद्र के खिलाफ गर्म जन
पहला मौका नहीं है जब दिसम्बर के सर्द मौसम में दिल्ली लाखों लोगों के आंदोलन से दहकी हो। दिसम्बर, 2011 में भी जंतर-मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने अभियान छेड़ा था ‘इंडिया अंगेस्ट करप्शन।’ वह पहले भी मजबूत लोकपाल बिल की पैरवी के लिए ऐसे ही आंदोलन उसी साल चला चुके थे। दिसम्बर के उनके आंदोलन में केवल सोशल मीडिया के जरिये ही लाखों लोग उमड़े थे। तब ‘मैं भी अन्ना’ टोपी क्रेज में थी।

दिसंबर-2012 में निर्भया कांड के बाद कितने ही लोग बिना राजनीतिक आह्वान के दिल्ली में डट खड़ हुए थे। निर्भया को इन्साफ दिलाने के लिए केवल सोशल मीडिया पर अभियान के कारण आसपास के राज्यों से इंडिया गेट, रायसीना हिल्स और जंतर-मंतर पहुंच गए थे। खास बात यह है कि तब लोगों ने निर्भया को इन्साफ की लड़ाई में फेसबुक और व्हाट्सएप पर प्रोफाइल फोटो को ब्लैक डॉट के तौर पर कई दिन लगाए रखा था।

सामूहिक नेतृत्व का एक नायाब नमूना
खास बात यह है कि इन तीनों ही आंदोलनों को तत्कालीन और मौजूदा विभिन्न विपक्षी दलों का समर्थन हासिल हुआ। दिग्गज उद्योगपतियों और फिल्म नगरी के चर्चित चेहरों ने भी पक्ष में सोशल मीडिया पर अपनी बात रखी मगर मौजूदा कृषि आंदोलन इसलिए पूर्व के दो जन आंदोलनों से अलग है कि इस बार पंजाबी म्यूजिक और फिल्म इंडस्ट्री से कई बड़े कलाकारों ने दिल्ली तक जाकर अपनी हाजिरी लगाई है। एक और बात, पहले आंदोलन में अन्ना चेहरा थे तो दूसरे में निर्भया। यानी इन दोनों के नाम पर लाखों की भीड़ दिल्ली में जुटी थी, जबकि इस किसान आंदोलन का कोई चेहरा नहीं है, यह सामूहिक नेतृत्व का एक नायाब नमूना है।


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Tania pathak

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