नम आंखों से इस शख्स ने बताया आजादी का मंजर, खून से लथपथ हो गई पूरी गलियां
punjabkesari.in Saturday, Aug 14, 2021 - 07:49 PM (IST)

फिरोजपुर (कुमार): देश कैसे आजाद हुआ और इस आजादी के लिए परिवारों को क्या किया कुछ खोना पड़ा, यह बात तो केवल वही परिवार जानते हैं। हमने इस आजादी के लिए बहुत कुछ खोया है और जब भी 15 अगस्त का दिन नजदीक आता है तब आंखों के सामने वही मंजर आ जाता है और कानों में चीखों की आवाजें सुनाई देने लगती है।यह दास्तान सुनाते हुए भारत-पाक बंटवारे में अपने परिवारों के सदस्यों को खो चुके फ़िरोज़पुर शहर बैंक कॉलोनी के निवासी सुदेश वर्मा पुत्र डॉक्टर राजकुमार वर्मा ( भारतीय स्टेट बैंक से सेवामुक्त हुए अधिकारी) ने कहा कि देश के बंटवारे के समय उनकी आंखों के सामने कबायलीयों ने उनके पिता डॉक्टर राजकुमार की हत्या कर दी।
सुदेश वर्मा ने बताया कि जब देश का बंटवारा हुआ तो वह पहली कक्षा में पढ़ते थे और जब सभी लोग घर में बैठे हुए थे तो अचानक शोर मचा कि कबायलीयों ने हमला कर दिया है। जान बचाने के लिए दूसरों के साथ उनका परिवार भी एक घर में छुप गया और हथियारों के साथ लैस होकर जब वह हमलावर आ गए तो उन्होंने सबसे पहले हिंदू परिवारों को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए कहा और जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल करने से मना कर दिया उनको उसी समय पर काट डाला गया। उन्होंने बताया कि उनके पिता डॉक्टर राजकुमार की भी परिवार के सामने ही दर्दनाक हत्या कर दी गई ।
देखते ही देखते उनकी गली खून से लथपथ हो गई और 25 से 30 लाशें गली के बीच बिखरी पड़ी थी ,जिनमें एक उनके पिता भी थे। उन्होंने बताया कि उनकी आंखों के सामने लड़कियों को उठाकर ले जाया गया और उनके उनकी इज्जत लूटी गई । हंसते खेलते परिवार देखते ही देखते बिखर गए।उन्होंने बताया कि उनकी माता शकुंतला देवी 6 महीने के बाद कैंप से मिली। जब हमला हुआ तो लाशों के गले व हाथों में पहने हुए सोने के जेवरात उतार लिये गए ।
आंखों में आंसू लिए सुदेश वर्मा ने बताया कि हथियारों से लैस होकर आई भीड़ ने उनकी दादी बिंद्रा देवी के हाथ में से सोने की चूड़ियां उतारने की कोशिश की और जब चूड़ियां नहीं उतरी तो वह उनकी दादी का हाथ काटने लगे और बड़ी मिनतों के बाद जब उन्होंने जेवरात उतार दिये तब उन्हें छोड़ा गया और उनके दादा के कानों में पहनने हुई सोने की वालिया तो उन्होंने कान काट कर उतार ली। सुदेश वर्मा ने बताया कि उनकी 3 महीने की बहन का पता ही नहीं चला और आते समय उनकी बहन उन्हें एक कैंप में मिली। उनकी दादी उन्हें और उनके भाइयों रमेश चंद्र और सतीश चंद्र को अपने साथ लेकर फाजिल्का आ गए और फाजिल्का से फ़िरोज़पुर पहुंच गए।
सुदेश वर्मा ने बताया कि उस समय उनके पास अपना पेट भरने और अपनी बहन को पालने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए मजबूरी में उन्हें अपनी बहन फ़िरोज़पुर के यतीम खाने में छोड़नी पड़ी । फ़िरोज़पुर पहुंचने पर वह छावनी के रेलवे स्टेशन के सामने एक धर्मशाला में रुके और यहां रहते कुछ ही दिनों के बाद भारी बाढ़ आ गई । बाढ़ में खून से लथपथ हुई लाशें तैरती नजर आती थी।उन्होंने बताया कि पाकिस्तान से अपनी जान बचाकर भारत आए उनके बहुत से साथी परिवार फाजिल्का में हैं और हर साल वह 25 अगस्त के दिन फाजिल्का इकट्ठे होते हैं । सुदेश वर्मा ने अपने उस दुख का इजहार शायरी अंदाज में करते हुए कहा कि
..यह जबर भी देखा है तारीख की नजरों ने ,लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।
उन्होंने कहा कि ..जहर मिलता रहा, जहर पीते रहे ,रोज जीते रहे रोज मरते रहे ,
जिंदगी हमें आजमाती रही हम जिंदगी को आजमाते रहे